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be-thikaane-hai-dil-e-gam-ghiin-thikaane-kii-kaho-firaq-gorakhpuri-ghazals
बे-ठिकाने है दिल-ए-ग़म-गीं ठिकाने की कहो शाम-ए-हिज्राँ दोस्तो कुछ इस के आने की कहो हाँ न पूछ इक गिरफ़्तार-ए-क़फ़स की ज़िंदगी हम-सफ़ीरान-ए-चमन कुछ आशियाने की कहो उड़ गया है मंज़िल-ए-दुश्वार में ग़म का समंद गेसू-ए-पुर-ए-पेच-ओ-ख़म के ताज़ियाने की कहो बात बनती और बातों से नज़र आती नहीं इस निगाह-ए-नाज़ की बातें बनाने की कहो दास्ताँ वो थी जिसे दिल बुझते बुझते कह गया शम-ए-बज़्म-ए-ज़िंदगी के झिलमिलाने की कहो कुछ दिल-ए-मरहूम की बातें करो ऐ अहल-ए-इल्म जिस से वीराने थे आबाद उस दिवाने की कहो दास्तान-ए-ज़िंदगी भी किस क़दर दिलचस्प है जो अज़ल से छिड़ गया है उस फ़साने की कहो ये फुसून-ए-नीम-ए-शब ये ख़्वाब-सामाँ ख़ामुशी सामरी फ़न आँख के जादू जगाने की कहो कोई क्या खाएगा यूँ सच्ची क़सम झूटी क़सम उस निगाह-ए-नाज़ की सौगंध खाने की कहो शाम ही से गोश-बर-आवाज़ है बज़्म-ए-सुख़न कुछ 'फ़िराक़' अपनी सुनाओ कुछ ज़माने की कहो
bahsen-chhidii-huii-hain-hayaat-o-mamaat-kii-firaq-gorakhpuri-ghazals
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की साज़-नवा-ए-दर्द हिजाबात-ए-दहर में कितनी दुखी हुई हैं रगें काएनात की रख ली जिन्हों ने कशमकश-ए-ज़िंदगी की लाज बे-दर्दियाँ न पूछिए उन से हयात की यूँ फ़र्त-ए-बे-ख़ुदी से मोहब्बत में जान दे तुझ को भी कुछ ख़बर न हो इस वारदात की है इश्क़ उस तबस्सुम-ए-जाँ-बख़्श का शहीद रंगीनियाँ लिए है जो सुब्ह-ए-हयात की छेड़ा है दर्द-ए-इश्क़ ने तार-ए-रग-ए-अदम सूरत पकड़ चली हैं नवाएँ हयात की शाम-ए-अबद को जल्वा-ए-सुब्ह-ए-बहार दे रूदाद छेड़ ज़िंदगी-ए-बे-सबात की उस बज़्म-ए-बे-ख़ुदी में वजूद-ए-अदम कहाँ चलती नहीं है साँस हयात-ओ-ममात की सौ दर्द इक तबस्सुम-ए-पिन्हाँ में बंद हैं तस्वीर हूँ 'फ़िराक़' नशात-ए-हयात की
aaj-bhii-qaafila-e-ishq-ravaan-hai-ki-jo-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था फिर तिरा ग़म वही रुस्वा-ए-जहाँ है कि जो था फिर फ़साना ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था ज़ुल्मत ओ नूर में कुछ भी न मोहब्बत को मिला आज तक एक धुँदलके का समाँ है कि जो था यूँ तो इस दौर में बे-कैफ़ सी है बज़्म-ए-हयात एक हंगामा सर-ए-रित्ल-ए-गिराँ है कि जो था लाख कर जौर-ओ-सितम लाख कर एहसान-ओ-करम तुझ पे ऐ दोस्त वही वहम-ओ-गुमाँ है कि जो था आज फिर इश्क़ दो-आलम से जुदा होता है आस्तीनों में लिए कौन-ओ-मकाँ है कि जो था इश्क़ अफ़्सुर्दा नहीं आज भी अफ़्सुर्दा बहुत वही कम कम असर-ए-सोज़-ए-निहाँ है कि जो था नज़र आ जाते हैं तुम को तो बहुत नाज़ुक बाल दिल मिरा क्या वही ऐ शीशा-गिराँ है कि जो था जान दे बैठे थे इक बार हवस वाले भी फिर वही मरहला-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है कि जो था आज भी सैद-गह-ए-इश्क़ में हुसन-ए-सफ़्फ़ाक लिए अबरू की लचकती सी कमाँ है कि जो था फिर तिरी चश्म-ए-सुख़न-संज ने छेड़ी कोई बात वही जादू है वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था रात भर हुस्न पर आए भी गए सौ सौ रंग शाम से इश्क़ अभी तक निगराँ है कि जो था जो भी कर जौर-ओ-सितम जो भी कर एहसान-ओ-करम तुझ पे ऐ दोस्त वही वहम-ओ-गुमाँ है कि जो था आँख झपकी कि इधर ख़त्म हुआ रोज़-ए-विसाल फिर भी इस दिन पे क़यामत का गुमाँ है कि जो था क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन आज वो रब्त का एहसास कहाँ है कि जो था तीरा-बख़्ती नहीं जाती दिल-ए-सोज़ाँ की 'फ़िराक़' शम्अ के सर पे वही आज धुआँ है कि जो था
tumhen-kyuunkar-bataaen-zindagii-ko-kyaa-samajhte-hain-firaq-gorakhpuri-ghazals
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं समझ लो साँस लेना ख़ुद-कुशी करना समझते हैं किसी बदमस्त को राज़-आश्ना सब का समझते हैं निगाह-ए-यार तुझ को क्या बताएँ क्या समझते हैं बस इतने पर हमें सब लोग दीवाना समझते हैं कि इस दुनिया को हम इक दूसरी दुनिया समझते हैं कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं उमीदों में भी उन की एक शान-ए-बे-नियाज़ी है हर आसानी को जो दुश्वार हो जाना समझते हैं यही ज़िद है तो ख़ैर आँखें उठाते हैं हम उस जानिब मगर ऐ दिल हम इस में जान का खटका समझते हैं कहीं हों तेरे दीवाने ठहर जाएँ तो ज़िंदाँ है जिधर को मुँह उठा कर चल पड़े सहरा समझते हैं जहाँ की फितरत-ए-बेगाना में जो कैफ़-ए-ग़म भर दें वही जीना समझते हैं वही मरना समझते हैं हमारा ज़िक्र क्या हम को तो होश आया मोहब्बत में मगर हम क़ैस का दीवाना हो जाना समझते हैं न शोख़ी शोख़ है इतनी न पुरकार इतनी पुरकारी न जाने लोग तेरी सादगी को क्या समझते हैं भुला दीं एक मुद्दत की जफ़ाएँ उस ने ये कह कर तुझे अपना समझते थे तुझे अपना समझते हैं ये कह कर आबला-पा रौंदते जाते हैं काँटों को जिसे तलवों में कर लें जज़्ब उसे सहरा समझते हैं ये हस्ती नीस्ती सब मौज-ख़ेज़ी है मोहब्बत की न हम क़तरा समझते हैं न हम दरिया समझते हैं 'फ़िराक़' इस गर्दिश-ए-अय्याम से कब काम निकला है सहर होने को भी हम रात कट जाना समझते हैं
tez-ehsaas-e-khudii-darkaar-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है ज़िंदगी को ज़िंदगी दरकार है जो चढ़ा जाए ख़ुमिस्तान-ए-जहाँ हाँ वही लब-तिश्नगी दरकार है देवताओं का ख़ुदा से होगा काम आदमी को आदमी दरकार है सौ गुलिस्ताँ जिस उदासी पर निसार मुझ को वो अफ़्सुर्दगी दरकार है शाएरी है सर-बसर तहज़ीब-ए-क़ल्ब उस को ग़म शाइस्तगी दरकार है शो'ला में लाता है जो सोज़-ओ-गुदाज़ वो ख़ुलूस-ए-बातनी दरकार है ख़ूबी-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ से कुछ सिवा शाएरी को साहिरी दरकार है क़ादिर-ए-मुतलक़ को भी इंसान की सुनते हैं बे-चारगी दरकार है और होंगे तालिब-ए-मदह-ए-जहाँ मुझ को बस तेरी ख़ुशी दरकार है अक़्ल में यूँ तो नहीं कोई कमी इक ज़रा दीवानगी दरकार है होश वालों को भी मेरी राय में एक गूना बे-ख़ुदी दरकार है ख़तरा-ए-बिस्यार-दानी की क़सम इल्म में भी कुछ कमी दरकार है दोस्तो काफ़ी नहीं चश्म-ए-ख़िरद इश्क़ को भी रौशनी दरकार है मेरी ग़ज़लों में हक़ाएक़ हैं फ़क़त आप को तो शाएरी दरकार है तेरे पास आया हूँ कहने एक बात मुझ को तेरी दोस्ती दरकार है मैं जफ़ाओं का न करता यूँ गिला आज तेरी ना-ख़ुशी दरकार है उस की ज़ुल्फ़ आरास्ता-पैरास्ता इक ज़रा सी बरहमी दरकार है ज़िंदा-दिल था ताज़ा-दम था हिज्र में आज मुझ को बे-दिली दरकार है हल्क़ा हल्क़ा गेसु-ए-शब रंग-ए-यार मुझ को तेरी अबतरी दरकार है अक़्ल ने कल मेरे कानों में कहा मुझ को तेरी ज़िंदगी दरकार है तेज़-रौ तहज़ीब-ए-आलम को 'फ़िराक़' इक ज़रा आहिस्तगी दरकार है
tuur-thaa-kaaba-thaa-dil-thaa-jalva-zaar-e-yaar-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था इश्क़ सब कुछ था मगर फिर आलम-ए-असरार था नश्शा-ए-सद-जाम कैफ़-ए-इंतिज़ार-ए-यार था हिज्र में ठहरा हुआ दिल साग़र-ए-सरशार था अलविदा'अ ऐ बज़्म-ए-अंजुम हिज्र की शब अल-फ़िराक़ ता-बा-ए-दौर-ए-ज़िंदगानी इंतिज़ार-ए-यार था एक अदा से बे-नियाज़-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी कर दिया मावरा-ए-वस्ल-ओ-हिज्राँ हुस्न का इक़रार था जौहर-ए-आईना-ए-आलम बने आँसू मिरे यूँ तो सच ये है कि रोना इश्क़ में बेकार था शोख़ी-ए-रफ़्तार वज्ह-ए-हस्ती-ए-बर्बाद थी ज़िंदगी क्या थी ग़ुबार-ए-रहगुज़ार-ए-यार था उल्फ़त-ए-देरीना का जब ज़िक्र इशारों में किया मुस्कुरा कर मुझ से पूछा तुम को किस से प्यार था दिल-दुखे रोए हैं शायद इस जगह ऐ कू-ए-दोस्त ख़ाक का इतना चमक जाना ज़रा दुश्वार था ज़र्रा ज़र्रा आइना था ख़ुद-नुमाई का 'फ़िराक़' सर-ब-सर सहरा-ए-आलम जल्वा-ज़ार-ए-यार था
ik-roz-hue-the-kuchh-ishaaraat-khafii-se-firaq-gorakhpuri-ghazals
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से आशिक़ हैं हम उस नर्गिस-ए-राना के जभी से करने को हैं दूर आज तो तौ ये रोग ही जी से अब रक्खेंगे हम प्यार न तुम से न किसी से अहबाब से रखता हूँ कुछ उम्मीद-ए-शराफ़त रहते हैं ख़फ़ा मुझ से बहुत लोग इसी से कहता हूँ उसे मैं तो ख़ुसूसिय्यत-ए-पिन्हाँ कुछ तुम को शिकायत है कसी से तो मुझी से अशआ'र नहीं हैं ये मिरी रूह की है प्यास जारी हुए सर-चश्मे मिरी तिश्ना-लबी से आँसू को मिरे खेल तमाशा न समझना कट जाता है पत्थर इसी हीरे की कनी से याद-ए-लब-ए-जानाँ है चराग़-ए-दिल-ए-रंजूर रौशन है ये घर आज उसी लाल-ए-यमनी से अफ़्लाक की मेहराब है आई हुई अंगड़ाई बे-कैफ़ कुछ आफ़ाक़ की आज़ा-शिकनी से कुछ ज़ेर-ए-लब अल्फ़ाज़ खनकते हैं फ़ज़ा में गूँजी हुई है बज़्म तिरी कम-सुख़नी से आज अंजुमन-ए-इश्क़ नहीं अंजुमन-ए-इश्क़ किस दर्जा कमी बज़्म में है तेरी कमी से इस वादी-ए-वीराँ में है सर-चश्मा-ए-दिल भी हस्ती मिरी सैराब है आँखों की नमी से ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई आज आई तिरी याद इस आहिस्ता-रवी से वो ढूँढने निकली है तिरी निकहत-ए-गेसू इक रोज़ मिला था मैं नसीम-ए-सहरी से सब कुछ वो दिला दे मुझे सब कुछ वो बना दे ऐ दोस्त नहीं दूर तिरी कम-निगही से मीआ'द-ए-दवाम-ओ-अबद इक नींद है उस की हम मुंतही-ए-जल्वा-ए-जानाँ हैं अभी से इक दिल के सिवा पास हमारे नहीं कुछ भी जो काम हो ले लेते हैं हम लोग इसी से मालूम हुआ और है इक आलम-ए-असरार आईना-ए-हस्ती की परेशाँ-नज़री से इस से तो कहीं बैठ रहे तोड़ के अब पावँ मिल जाए नजात इश्क़ को इस दर-ब-दरी से रहता हूँ 'फ़िराक़' इस लिए वारफ़्ता कि दुनिया कुछ होश में आ जाए मिरी बे-ख़बरी से
zindagii-dard-kii-kahaanii-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
ज़िंदगी दर्द की कहानी है चश्म-ए-अंजुम में भी तो पानी है बे-नियाज़ाना सुन लिया ग़म-ए-दिल मेहरबानी है मेहरबानी है वो भला मेरी बात क्या माने उस ने अपनी भी बात मानी है शोला-ए-दिल है ये कि शोला-साज़ या तिरा शोला-ए-जवानी है वो कभी रंग वो कभी ख़ुशबू गाह गुल गाह रात-रानी है बन के मासूम सब को ताड़ गई आँख उस की बड़ी सियानी है आप-बीती कहो कि जग-बीती हर कहानी मिरी कहानी है दोनों आलम हैं जिस के ज़ेर-ए-नगीं दिल उसी ग़म की राजधानी है हम तो ख़ुश हैं तिरी जफ़ा पर भी बे-सबब तेरी सरगिरानी है सर-ब-सर ये फ़राज़-ए-मह्र-ओ-क़मर तेरी उठती हुई जवानी है आज भी सुन रहे हैं क़िस्सा-ए-इश्क़ गो कहानी बहुत पुरानी है ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा और अगर रोइए तो पानी है है ठिकाना ये दर ही उस का भी दिल भी तेरा ही आस्तानी है उन से ऐसे में जो न हो जाए नौ-जवानी है नौ-जवानी है दिल मिरा और ये ग़म-ए-दुनिया क्या तिरे ग़म की पासबानी है गर्दिश-ए-चश्म-ए-साक़ी-ए-दौराँ दौर-ए-अफ़लाक की भी पानी है ऐ लब-ए-नाज़ क्या हैं वो असरार ख़ामुशी जिन की तर्जुमानी है मय-कदों के भी होश उड़ने लगे क्या तिरी आँख की जवानी है ख़ुद-कुशी पर है आज आमादा अरे दुनिया बड़ी दिवानी है कोई इज़हार-ए-ना-ख़ुशी भी नहीं बद-गुमानी सी बद-गुमानी है मुझ से कहता था कल फ़रिश्ता-ए-इश्क़ ज़िंदगी हिज्र की कहानी है बहर-ए-हस्ती भी जिस में खो जाए बूँद में भी वो बे-करानी है मिल गए ख़ाक में तिरे उश्शाक़ ये भी इक अम्र-ए-आसमानी है ज़िंदगी इंतिज़ार है तेरा हम ने इक बात आज जानी है क्यूँ न हो ग़म से ही क़िमाश उस का हुस्न तसवीर-ए-शादमानी है सूनी दुनिया में अब तो मैं हूँ और मातम-ए-इश्क़-ए-आँ-जहानी है कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब रात है नींद है कहानी है
sitaaron-se-ulajhtaa-jaa-rahaa-huun-firaq-gorakhpuri-ghazals
सितारों से उलझता जा रहा हूँ शब-ए-फ़ुर्क़त बहुत घबरा रहा हूँ तिरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ जहाँ को भी समझता जा रहा हूँ यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है गुमाँ ये है कि धोके खा रहा हूँ अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ हदें हुस्न-ओ-मोहब्बत की मिला कर क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ ख़बर है तुझ को ऐ ज़ब्त-ए-मोहब्बत तिरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ भरम तेरे सितम का खुल चुका है मैं तुझ से आज क्यूँ शरमा रहा हूँ उन्हीं में राज़ हैं गुल-बारियों के मैं जो चिंगारियाँ बरसा रहा हूँ जो उन मा'सूम आँखों ने दिए थे वो धोके आज तक मैं खा रहा हूँ तिरे पहलू में क्यूँ होता है महसूस कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ हद-ए-जोर-ओ-करम से बढ़ चला हुस्न निगाह-ए-यार को याद आ रहा हूँ जो उलझी थी कभी आदम के हाथों वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है तुझे कुछ भूलता सा जा रहा हूँ अजल भी जिन को सुन कर झूमती है वो नग़्मे ज़िंदगी के गा रहा हूँ ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप 'फ़िराक़' अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ
nigaah-e-naaz-ne-parde-uthaae-hain-kyaa-kyaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या हिजाब अहल-ए-मोहब्बत को आए हैं क्या क्या जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या दो-चार बर्क़-ए-तजल्ली से रहने वालों ने फ़रेब नर्म-निगाही के खाए हैं क्या क्या दिलों पे करते हुए आज आती जाती चोट तिरी निगाह ने पहलू बचाए हैं क्या क्या निसार नर्गिस-ए-मय-गूँ कि आज पैमाने लबों तक आए हुए थरथराए हैं क्या क्या वो इक ज़रा सी झलक बर्क़-ए-कम-निगाही की जिगर के ज़ख़्म-ए-निहाँ मुस्कुराए हैं क्या क्या चराग़-ए-तूर जले आइना-दर-आईना हिजाब बर्क़-ए-अदा ने उठाए हैं क्या क्या ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दीद-ए-हुस्न क्या हो मगर निगाह-ए-शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या कहीं चराग़ कहीं गुल कहीं दिल-ए-बर्बाद ख़िराम-ए-नाज़ ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या तग़ाफ़ुल और बढ़ा उस ग़ज़ाल-ए-रअना का फ़ुसून-ए-ग़म ने भी जादू जगाए हैं क्या क्या हज़ार फ़ित्ना-ए-बेदार ख़्वाब-ए-रंगीं में चमन में ग़ुंचा-ए-गुल-रंग लाए हैं क्या क्या तिरे ख़ुलूस-ए-निहाँ का तो आह क्या कहना सुलूक उचटटे भी दिल में समाए हैं क्या क्या नज़र बचा के तिरे इश्वा-हा-ए-पिन्हाँ ने दिलों में दर्द-ए-मोहब्बत उठाए हैं क्या क्या पयाम-ए-हुस्न पयाम-ए-जुनूँ पयाम-ए-फ़ना तिरी निगह ने फ़साने सुनाए हैं क्या क्या तमाम हुस्न के जल्वे तमाम महरूमी भरम निगाह ने अपने गँवाए हैं क्या क्या 'फ़िराक़' राह-ए-वफ़ा में सुबुक-रवी तेरी बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या
kisii-kaa-yuun-to-huaa-kaun-umr-bhar-phir-bhii-firaq-gorakhpuri-ghazals
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ 'फ़िराक़' करती रही काम वो नज़र फिर भी
junuun-e-kaargar-hai-aur-main-huun-firaq-gorakhpuri-ghazals
जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ हयात-ए-बे-ख़बर है और मैं हूँ मिटा कर दिल निगाह-ए-अव्वलीं से तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ कहाँ मैं आ गया ऐ ज़ोर-ए-परवाज़ वबाल-ए-बाल-ओ-पर है और मैं हूँ निगाह-ए-अव्वलीं से हो के बर्बाद तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ मुबारकबाद अय्याम-ए-असीरी ग़म-ए-दीवार-ओ-दर है और मैं हूँ तिरी जमइय्यतें हैं और तू है हयात-ए-मुंतशर है और मैं हूँ कोई हो सुस्त-पैमाँ भी तो यूँ हो ये शाम-ए-बे-सहर है और मैं हूँ निगाह-ए-बे-महाबा तेरे सदक़े कई टुकड़े जिगर है और मैं हूँ ठिकाना है कुछ इस उज़्र-ए-सितम का तिरी नीची नज़र है और मैं हूँ 'फ़िराक़' इक एक हसरत मिट रही है ये मातम रात भर है और मैं हूँ
narm-fazaa-kii-karvaten-dil-ko-dukhaa-ke-rah-gaiin-firaq-gorakhpuri-ghazals
नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं ठंडी हवाएँ भी तिरी याद दिला के रह गईं शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं मुझ को ख़राब कर गईं नीम-निगाहियाँ तिरी मुझ से हयात ओ मौत भी आँखें चुरा के रह गईं हुस्न-ए-नज़र-फ़रेब में किस को कलाम था मगर तेरी अदाएँ आज तो दिल में समा के रह गईं तब कहीं कुछ पता चला सिद्क़-ओ-ख़ुलूस-ए-हुस्न का जब वो निगाहें इश्क़ से बातें बना के रह गईं तेरे ख़िराम-ए-नाज़ से आज वहाँ चमन खिले फ़सलें बहार की जहाँ ख़ाक उड़ा के रह गईं पूछ न उन निगाहों की तुर्फ़ा करिश्मा-साज़ियाँ फ़ित्ने सुला के रह गईं फ़ित्ने जगा के रह गईं तारों की आँख भी भर आई मेरी सदा-ए-दर्द पर उन की निगाहें भी तिरा नाम बता के रह गईं उफ़ ये ज़मीं की गर्दिशें आह ये ग़म की ठोकरें ये भी तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के शाने हिला के रह गईं और तो अहल-ए-दर्द कौन सँभालता भला हाँ तेरी शादमानियाँ उन को रुला के रह गईं याद कुछ आईं इस तरह भूली हुई कहानियाँ खोए हुए दिलों में आज दर्द उठा के रह गईं साज़-ए-नशात-ए-ज़िंदगी आज लरज़ लरज़ उठा किस की निगाहें इश्क़ का दर्द सुना के रह गईं तुम नहीं आए और रात रह गई राह देखती तारों की महफ़िलें भी आज आँखें बिछा के रह गईं झूम के फिर चलीं हवाएँ वज्द में आईं फिर फ़ज़ाएँ फिर तिरी याद की घटाएँ सीनों पे छा के रह गईं क़ल्ब ओ निगाह की ये ईद उफ़ ये मआल-ए-क़ुर्ब-ओ-दीद चर्ख़ की गर्दिशें तुझे मुझ से छुपा के रह गईं फिर हैं वही उदासियाँ फिर वही सूनी काएनात अहल-ए-तरब की महफ़िलें रंग जमा के रह गईं कौन सुकून दे सका ग़म-ज़दगान-ए-इश्क़ को भीगती रातें भी 'फ़िराक़' आग लगा के रह गईं
mai-kade-men-aaj-ik-duniyaa-ko-izn-e-aam-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था दौर-ए-जाम-ए-बे-ख़ुदी बेगाना-ए-अय्याम था रूह लर्ज़ां आँख महव-ए-दीद दिल नाकाम था इश्क़ का आग़ाज़ भी शाइस्ता-ए-अंजाम था रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ को तस्वीर-ए-ग़म कर ही दिया हुस्न भी कितना ख़राब-ए-गर्दिश-ए-अय्याम था ग़म-कदे में दहर के यूँ तो अँधेरा था मगर इश्क़ का दाग़-ए-सियह-बख़्ती चराग़-ए-शाम था तेरी दुज़दीदा-निगाही यूँ तो ना-महसूस थी हाँ मगर दफ़्तर का दफ़्तर हुस्न का पैग़ाम था शाक़ अहल-ए-शौक़ पर थीं उस की इस्मत-दारियाँ सच है लेकिन हुस्न दर-पर्दा बहुत बद-नाम था महव थे गुल्ज़ार-ए-रंगा-रंग के नक़्श-ओ-निगार वहशतें थी दिल के सन्नाटे थे दश्त-ए-शाम था बे-ख़ता था हुस्न हर जौर-ओ-जफ़ा के बा'द भी इश्क़ के सर ता-अबद इल्ज़ाम ही इल्ज़ाम था यूँ गरेबाँ-चाक दुनिया में नहीं होता कोई हर खुला गुलशन शहीद-ए-गर्दिश-ए-अय्याम था देख हुस्न-ए-शर्मगीं दर-पर्दा क्या लाया है रंग इश्क़ रुस्वा-ए-जहाँ बदनाम ही बदनाम था रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ था गो दिल-ए-ग़म-गीं 'फ़िराक़' सर्द था अफ़्सुर्दा था महरूम था नाकाम था
chhalak-ke-kam-na-ho-aisii-koii-sharaab-nahiin-firaq-gorakhpuri-ghazals
छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं निगाह-ए-नर्गिस-ए-राना तिरा जवाब नहीं ज़मीन जाग रही है कि इंक़लाब है कल वो रात है कोई ज़र्रा भी महव-ए-ख़्वाब नहीं हयात-ए-दर्द हुई जा रही है क्या होगा अब इस नज़र की दुआएँ भी मुस्तजाब नहीं ज़मीन उस की फ़लक उस का काएनात उस की कुछ ऐसा इश्क़ तिरा ख़ानुमाँ-ख़राब नहीं अभी कुछ और हो इंसान का लहू पानी अभी हयात के चेहरे पर आब-ओ-ताब नहीं जहाँ के बाब में तर दामनों का क़ौल ये है ये मौज मारता दरिया कोई सराब नहीं दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने ख़राब हो के भी ये ज़िंदगी ख़राब नहीं
ye-narm-narm-havaa-jhilmilaa-rahe-hain-charaag-firaq-gorakhpuri-ghazals
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़ तिरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़ दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई कि जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चराग़ झलकती है खिंची शमशीर में नई दुनिया हयात ओ मौत के मिलते नहीं हैं आज दिमाग़ हरीफ़-ए-सीना-ए-मजरूह ओ आतिश-ए-ग़म-ए-इश्क़ न गुल की चाक-गरेबानियाँ न लाले के दाग़ वो जिन के हाल में लौ दे उठे ग़म-ए-फ़र्दा वही हैं अंजुमन-ए-ज़िंदगी के चश्म-ओ-चराग़ तमाम शो'ला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार कि ता-हद-ए-निगह-ए-शौक़ लहलहाते हैं बाग़ नई ज़मीन नया आसमाँ नई दुनिया सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनों है फ़राग़ जो तोहमतें न उठीं इक जहाँ से उन के समेत गुनाहगार-ए-मोहब्बत निकल गए बे-दाग़ जो छुप के तारों की आँखों से पाँव धरता है उसी के नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से जल उठे हैं चराग़ जहान-ए-राज़ हुई जा रही है आँख तिरी कुछ इस तरह वो दिलों का लगा रही है सुराग़ ज़माना कूद पड़ा आग में यही कह कर कि ख़ून चाट के हो जाएगी ये आग भी बाग़ निगाहें मतला-ए-नौ पर हैं एक आलम की कि मिल रहा है किसी फूटती किरन का सुराग़ दिलों में दाग़-ए-मोहब्बत का अब ये आलम है कि जैसे नींद में डूबे हों पिछली रात चराग़ 'फ़िराक़' बज़्म-ए-चराग़ाँ है महफ़िल-ए-रिंदाँ सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग़
haath-aae-to-vahii-daaman-e-jaanaan-ho-jaae-firaq-gorakhpuri-ghazals
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए छूट जाए तो वही अपना गरेबाँ हो जाए इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा हुस्न यूँ लाख छुपे लाख नुमायाँ हो जाए होश-ओ-ग़फ़लत से बहुत दूर है कैफ़िय्यत-ए-इश्क़ उस की हर बे-ख़बरी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ हो जाए याद आती है जब अपनी तो तड़प जाता हूँ मेरी हस्ती तिरा भूला हवा पैमाँ हो जाए आँख वो है जो तिरी जल्वा-गह-ए-नाज़ बने दिल वही है जो सरापा तिरा अरमाँ हो जाए पाक-बाज़ान-ए-मोहब्बत में जो बेबाकी है हुस्न गर उस को समझ ले तो पशेमाँ हो जाए सहल हो कर हुइ दुश्वार मोहब्बत तेरी उसे मुश्किल जो बना लें तो कुछ आसाँ हो जाए इश्क़ फिर इश्क़ है जिस रूप में जिस भेस में हो इशरत-ए-वस्ल बने या ग़म-ए-हिज्राँ हो जाए कुछ मुदावा भी हो मजरूह दिलों का ऐ दोस्त मरहम-ए-ज़ख़्म तिरा जौर-पशेमाँ हो जाए ये भी सच है कोई उल्फ़त में परेशाँ क्यूँ हो ये भी सच है कोई क्यूँकर न परेशाँ हो जाए इश्क़ को अर्ज़-ए-तमन्ना में भी लाखों पस-ओ-पेश हुस्न के वास्ते इंकार भी आसाँ हो जाए झिलमिलाती है सर-ए-बज़्म-ए-जहाँ शम-ए-ख़ुदी जो ये बुझ जाए चराग़-ए-रह-ए-इरफाँ हो जाए सर-ए-शोरीदा दिया दश्त-ओ-बयाबाँ भी दिए ये मिरी ख़ूबी-ए-क़िस्मत कि वो ज़िंदाँ हो जाए उक़्दा-ए-इश्क़ अजब उक़्दा-ए-मोहमल है 'फ़िराक़' कभी ला-हल कभी मुश्किल कभी आसाँ हो जाए
ras-men-duubaa-huaa-lahraataa-badan-kyaa-kahnaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना करवटें लेती हुई सुब्ह-ए-चमन क्या कहना निगह-ए-नाज़ में ये पिछले पहर रंग-ए-ख़ुमार नींद में डूबी हुई चंद्र-किरन क्या कहना बाग़-ए-जन्नत पे घटा जैसे बरस के खुल जाए ये सुहानी तिरी ख़ुशबू-ए-बदन क्या कहना ठहरी ठहरी सी निगाहों में ये वहशत की किरन चौंके चौंके से ये आहू-ए-ख़ुतन क्या कहना रूप संगीत ने धारा है बदन का ये रचाव तुझ पे लहलूट है बे-साख़्ता-पन क्या कहना जैसे लहराए कोई शो'ला-कमर की ये लचक सर-ब-सर आतिश-ए-सय्याल बदन क्या कहना जिस तरह जल्वा-ए-फ़िर्दोस हवाओं से छिने पैरहन में तिरे रंगीनी-ए-तन क्या कहना जल्वा-ओ-पर्दे का ये रंग दम-ए-नज़्ज़ारा जिस तरह अध-खुले घुँघट में दुल्हन क्या कहना दम-ए-तक़रीर खिल उठते हैं गुलिस्ताँ क्या क्या यूँ तो इक ग़ुंचा-ए-नौरस है दहन क्या कहना दिल के आईने में इस तरह उतरती है निगाह जैसे पानी में लचक जाए किरन क्या कहना लहलहाता हुआ ये क़द ये लहकता जोबन ज़ुल्फ़ सो महकी हुई रातों का बन क्या कहना तू मोहब्बत का सितारा तो जवानी का सुहाग हुस्न लौ देता है लाल-ए-यमन क्या कहना तेरी आवाज़ सवेरा तिरी बातें तड़का आँखें खुल जाती हैं एजाज़-ए-सुख़न क्या कहना ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ की चमक पैकर-ए-सीमीं की दमक दीप-माला है सर-ए-गंग-ओ-जमन क्या कहना नीलगूँ शबनमी कपड़ों में बदन की ये जोत जैसे छनती हो सितारों की किरन क्या कहना
vaqt-e-guruub-aaj-karaamaat-ho-gaii-firaq-gorakhpuri-ghazals
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई कल तक तो उस में ऐसी करामत न थी कोई वो आँख आज क़िबला-ए-हाजात हो गई ऐ सोज़-ए-इश्क़ तू ने मुझे क्या बना दिया मेरी हर एक साँस मुनाजात हो गई ओछी निगाह डाल के इक सम्त रख दिया दिल क्या दिया ग़रीब की सौग़ात हो गई कुछ याद आ गई थी वो ज़ुल्फ़-ए-शिकन-शिकन हस्ती तमाम चश्मा-ए-ज़ुल्मात हो गई अहल-ए-वतन से दूर जुदाई में यार की सब्र आ गया 'फ़िराक़' करामात हो गई
ab-aksar-chup-chup-se-rahen-hain-yuunhii-kabhuu-lab-kholen-hain-firaq-gorakhpuri-ghazals
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं पहले 'फ़िराक़' को देखा होता अब तो बहुत कम बोलें हैं दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औक़ात जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो लें हैं फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं ख़ुनुक सियह महके हुए साए फैल जाएँ हैं जल-थल पर किन जतनों से मेरी ग़ज़लें रात का जूड़ा खोलें हैं बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर डाली डाली नौरस पत्ते सहज सहज जब डोलें हैं उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदे हाए वो आलम-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ जब फ़ित्ने पर तौलें हैं नक़्श-ओ-निगार-ए-ग़ज़ल में जो तुम ये शादाबी पाओ हो हम अश्कों में काएनात के नोक-ए-क़लम को डुबो लें हैं इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम हुए है नदीम ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोलें हैं ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर-ए-शब आराम करो कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो लें हैं हम लोग अब तो अजनबी से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-'फ़िराक़' अब तो तुम्हीं को प्यार करें हैं अब तो तुम्हीं से बोलें हैं
mujh-ko-maaraa-hai-har-ik-dard-o-davaa-se-pahle-firaq-gorakhpuri-ghazals
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले आतिश-ए-इश्क़ भड़कती है हवा से पहले होंट जुलते हैं मोहब्बत में दुआ से पहले फ़ित्ने बरपा हुए हर ग़ुंचा-ए-सर-बस्ता से खुल गया राज़-ए-चमन चाक-ए-क़बा से पहले चाल है बादा-ए-हस्ती का छलकता हुआ जाम हम कहाँ थे तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से पहले अब कमी क्या है तिरे बे-सर-ओ-सामानों को कुछ न था तेरी क़सम तर्क-ए-वफ़ा से पहले इश्क़-ए-बेबाक को दा'वे थे बहुत ख़ल्वत में खो दिया सारा भरम शर्म-ओ-हया से पहले ख़ुद-बख़ुद चाक हुए पैरहन-ए-लाला-ओ-गुल चल गई कौन हवा बाद-ए-सबा से पहले हम-सफ़र राह-ए-अदम में न हो तारों-भरी रात हम पहुँच जाएँगे इस आबला-पा से पहले पर्दा-ए-शर्म में सद-बर्क़-ए-तबस्सुम के निसार होश जाते रहे नैरंग-ए-हया से पहले मौत के नाम से डरते थे हम ऐ शौक़-ए-हयात तू ने तो मार ही डाला था क़ज़ा से पहले बे-तकल्लुफ़ भी तिरा हुस्न-ए-ख़ुद-आरा था कभी इक अदा और भी थी हुस्न-ए-अदा से पहले ग़फ़लतें हस्ती-ए-फ़ानी की बता देंगी तुझे जो मिरा हाल था एहसास-ए-फ़ना से पहले हम उन्हें पा के 'फ़िराक़' और भी कुछ खोए गए ये तकल्लुफ़ तो न थे अहद-ए-वफ़ा से पहले
aankhon-men-jo-baat-ho-gaii-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
आँखों में जो बात हो गई है इक शरह-ए-हयात हो गई है जब दिल की वफ़ात हो गई है हर चीज़ की रात हो गई है ग़म से छुट कर ये ग़म है मुझ को क्यूँ ग़म से नजात हो गई है मुद्दत से ख़बर मिली न दिल की शायद कोई बात हो गई है जिस शय पे नज़र पड़ी है तेरी तस्वीर-ए-हयात हो गई है अब हो मुझे देखिए कहाँ सुब्ह उन ज़ुल्फ़ों में रात हो गई है दिल में तुझ से थी जो शिकायत अब ग़म के निकात हो गई है इक़रार-ए-गुनाह-ए-इश्क़ सुन लो मुझ से इक बात हो गई है जो चीज़ भी मुझ को हाथ आई तेरी सौग़ात हो गई है क्या जानिए मौत पहले क्या थी अब मेरी हयात हो गई है घटते घटते तिरी इनायत मेरी औक़ात हो गई है उस चश्म-ए-सियह की याद यकसर शाम-ए-ज़ुल्मात हो गई है इस दौर में ज़िंदगी बशर की बीमार की रात हो गई है जीती हुई बाज़ी-ए-मोहब्बत खेला हूँ तो मात हो गई है मिटने लगीं ज़िंदगी की क़द्रें जब ग़म से नजात हो गई है वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाए जब आए हैं रात हो गई है दुनिया है कितनी बे-ठिकाना आशिक़ की बरात हो गई है पहले वो निगाह इक किरन थी अब बर्क़-सिफ़ात हो गई है जिस चीज़ को छू दिया है तू ने इक बर्ग-ए-नबात हो गई है इक्का-दुक्का सदा-ए-ज़ंजीर ज़िंदाँ में रात हो गई है एक एक सिफ़त 'फ़िराक़' उस की देखा है तो ज़ात हो गई है
ye-nikhaton-kii-narm-ravii-ye-havaa-ye-raat-firaq-gorakhpuri-ghazals
ये निकहतों की नर्म-रवी ये हवा ये रात याद आ रहे हैं इश्क़ को टूटे तअ'ल्लुक़ात मायूसियों की गोद में दम तोड़ता है इश्क़ अब भी कोई बना ले तो बिगड़ी नहीं है बात कुछ और भी तो हो इन इशारात के सिवा ये सब तो ऐ निगाह-ए-करम बात बात बात इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात हम अहल-ए-इंतिज़ार के आहट पे कान थे ठंडी हवा थी ग़म था तिरा ढल चली थी रात यूँ तो बची बची सी उठी वो निगाह-ए-नाज़ दुनिया-ए-दिल में हो ही गई कोई वारदात जिन का सुराग़ पा न सकी ग़म की रूह भी नादाँ हुए हैं इश्क़ में ऐसे भी सानेहात हर सई ओ हर अमल में मोहब्बत का हाथ है तामीर-ए-ज़िंदगी के समझ कुछ मुहर्रिकात उस जा तिरी निगाह मुझे ले गई जहाँ लेती हो जैसे साँस ये बे-जान काएनात क्या नींद आए उस को जिसे जागना न आए जो दिन को दिन करे वो करे रात को भी रात दरिया के मद्द-ओ-जज़्र भी पानी के खेल हैं हस्ती ही के करिश्मे हैं क्या मौत क्या हयात अहल-ए-रज़ा में शान-ए-बग़ावत भी हो ज़रा इतनी भी ज़िंदगी न हो पाबंद-ए-रस्मियात हम अहल-ए-ग़म ने रंग-ए-ज़माना बदल दिया कोशिश तो की सभी ने मगर बन पड़े की बात पैदा करे ज़मीन नई आसमाँ नया इतना तो ले कोई असर-ए-दौर-काएनात शाइ'र हूँ गहरी नींद में हैं जो हक़ीक़तें चौंका रहे हैं उन को भी मेरे तवहहुमात मुझ को तो ग़म ने फ़ुर्सत-ए-ग़म भी न दी 'फ़िराक़' दे फ़ुर्सत-ए-हयात न जैसे ग़म-ए-हयात
aaii-hai-kuchh-na-puuchh-qayaamat-kahaan-kahaan-firaq-gorakhpuri-ghazals
आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ उफ़ ले गई है मुझ को मोहब्बत कहाँ कहाँ बेताबी-ओ-सुकूँ की हुईं मंज़िलें तमाम बहलाएँ तुझ से छुट के तबीअ'त कहाँ कहाँ फ़ुर्क़त हो या विसाल वही इज़्तिराब है तेरा असर है ऐ ग़म-ए-फ़ुर्क़त कहाँ कहाँ हर जुम्बिश-ए-निगाह में सद-कैफ़ बे-ख़ुदी भरती फिरेगी हुस्न की निय्यत कहाँ कहाँ राह-ए-तलब में छोड़ दिया दिल का साथ भी फिरते लिए हुए ये मुसीबत कहाँ कहाँ दिल के उफ़क़ तक अब तो हैं परछाइयाँ तिरी ले जाए अब तो देख ये वहशत कहाँ कहाँ ऐ नर्गिस-ए-सियाह बता दे तिरे निसार किस किस को है ये होश ये ग़फ़लत कहाँ कहाँ नैरंग-ए-इश्क़ की है कोई इंतिहा कि ये ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ बेगानगी पर उस की ज़माने से एहतिराज़ दर-पर्दा उस अदा की शिकायत कहाँ कहाँ फ़र्क़ आ गया था दौर-ए-हयात-ओ-ममात में आई है आज याद वो सूरत कहाँ कहाँ जैसे फ़ना बक़ा में भी कोई कमी सी हो मुझ को पड़ी है तेरी ज़रूरत कहाँ कहाँ दुनिया से ऐ दल इतनी तबीअ'त भरी न थी तेरे लिए उठाई नदामत कहाँ कहाँ अब इम्तियाज़-ए-इश्क़-ओ-हवस भी नहीं रहा होती है तेरी चश्म-ए-इनायत कहाँ कहाँ हर गाम पर तरीक़-ए-मोहब्बत में मौत थी इस राह में खुले दर-ए-रहमत कहाँ कहाँ होश-ओ-जुनूँ भी अब तो बस इक बात हैं 'फ़िराक़' होती है उस नज़र की शरारत कहाँ कहाँ
kuchh-na-kuchh-ishq-kii-taasiir-kaa-iqraar-to-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है देख लेते हैं सभी कुछ तिरे मुश्ताक़-ए-जमाल ख़ैर दीदार न हो हसरत-ए-दीदार तो है माअ'रके सर हों उसी बर्क़-ए-नज़र से ऐ हुस्न ये चमकती हुई चलती हुइ तलवार तो है सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है इश्क़ का शिकवा-ए-बेजा भी न बे-कार गया न सही जौर मगर जौर का इक़रार तो है तुझ से हिम्मत तो पड़ी इश्क़ को कुछ कहने की ख़ैर शिकवा न सही शुक्र का इज़हार तो है इस में भी राबता-ए-ख़ास की मिलती है झलक ख़ैर इक़रार-ए-मोहब्बत न हो इंकार तो है क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है कई उन्वान हैं मम्नून-ए-करम करने के इश्क़ में कुछ न सही ज़िंदगी बे-कार तो है सहर-ओ-शाम सर-ए-अंजुमन-ए-नाज़ न हो जल्वा-ए-हुस्न तो है इश्क़-ए-सियहकार तो है चौंक उठते हैं 'फ़िराक़' आते ही उस शोख़ का नाम कुछ सरासीमगी-ए-इश्क़ का इक़रार तो है
rukii-rukii-sii-shab-e-marg-khatm-par-aaii-firaq-gorakhpuri-ghazals-1
रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई वो पौ फटी वो नई ज़िंदगी नज़र आई ये मोड़ वो है कि परछाइयाँ भी देंगी न साथ मुसाफ़िरों से कहो उस की रहगुज़र आई फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन पहुँच के मंज़िल-ए-जानाँ पे आँख भर आई कहीं ज़मान-ओ-मकाँ में है नाम को भी सुकूँ मगर ये बात मोहब्बत की बात पर आई किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी उमीद-वारों में कल मौत भी नज़र आई कहाँ हर एक से इंसानियत का बार उठा कि ये बला भी तिरे आशिक़ों के सर आई दिलों में आज तिरी याद मुद्दतों के बा'द ब-चेहरा-ए-मुतबस्सिम ब-चश्म-ए-तर आई नया नहीं है मुझे मर्ग-ए-ना-गहाँ का पयाम हज़ार रंग से अपनी मुझे ख़बर आई फ़ज़ा को जैसे कोई राग चीरता जाए तिरी निगाह दिलों में यूँही उतर आई ज़रा विसाल के बा'द आइना तो देख ऐ दोस्त तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई तिरा ही अक्स सरिश्क-ए-ग़म-ए-ज़माना में था निगाह में तिरी तस्वीर सी उतर आई अजब नहीं कि चमन-दर-चमन बने हर फूल कली कली की सबा जा के गोद भर आई शब-ए-'फ़िराक़' उठे दिल में और भी कुछ दर्द कहूँ ये कैसे तिरी याद रात-भर आई
bahut-pahle-se-un-qadmon-kii-aahat-jaan-lete-hain-firaq-gorakhpuri-ghazals
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं 'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
har-naala-tire-dard-se-ab-aur-hii-kuchh-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है हर नग़्मा सर-ए-बज़्म-ए-तरब और ही कुछ है अरबाब-ए-वफ़ा जान भी देने को हैं तयार हस्ती का मगर हुस्न-ए-तलब और ही कुछ है ये काम न ले नाला-ओ-फ़र्याद-ओ-फ़ुग़ां से अफ़्लाक उलट देने का ढब और ही कुछ है इक सिलसिला-ए-राज़ है जीना कि हो मरना जब और ही कुछ था मगर अब और ही कुछ है कुछ मेहर-ए-क़यामत है न कुछ नार-ए-जहन्नम होश्यार कि वो क़हर-ओ-ग़ज़ब और ही कुछ है मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती दुनिया के मसाइब का सबब और ही कुछ है बेहूदा-सारी सज्दे में है जान खपाना आईन-ए-मोहब्बत में अदब और ही कुछ है क्या हुस्न के अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल की शिकायत पैमान-ए-वफ़ा इश्क़ का जब और ही कुछ है दुनिया को जगा दे जो अदम को भी सुला दे सुनते हैं कि वो रोज़ वो शब और ही कुछ है आँखों ने 'फ़िराक़' आज न पूछो जो दिखाया जो कुछ नज़र आता है वो सब और ही कुछ है
chhed-ai-dil-ye-kisii-shokh-ke-rukhsaaron-se-firaq-gorakhpuri-ghazals
छेड़ ऐ दिल ये किसी शोख़ के रुख़्सारों से खेलना आह दहकते हुए अँगारों से हम शब-ए-हिज्र में जब सोती है सारी दुनिया ज़िक्र करते हैं तिरा छिटके हुए तारों से अश्क भर लाए किसी ने जो तिरा नाम लिया और क्या हिज्र में होता तिरे बीमारों से छेड़ नग़्मा कोई गो दिल की शिकस्ता हैं रगें हम निकालेंगे सदा टूटे हुए तारों से हम को तेरी है ज़रूरत न इसे भूल ऐ दोस्त तेरे इक़रारों से मतलब है न इन्कारों से हम हैं वो बेकस-ओ-बे-यार कि बैठे बैठे अपना दुख-दर्द कहा करते हैं दीवारों से अहल-ए-दुनिया से ये कहते हैं मिरे नाला-ए-दिल हम सदा देंगे ग़म-ए-हिज्र के मीनारों से इश्क़ हमदर्दी-ए-आलम का रवादार नहीं हो गई भूल 'फ़िराक़' आप के ग़म-ख़्वारों से
zamiin-badlii-falak-badlaa-mazaaq-e-zindagii-badlaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
ज़मीं बदली फ़लक बदला मज़ाक़-ए-ज़िंदगी बदला तमद्दुन के क़दीम अक़दार बदले आदमी बदला ख़ुदा-ओ-अहरमन बदले वो ईमान-ए-दुई बदला हदूद-ए-ख़ैर-ओ-शर बदले मज़ाक़-ए-काफ़िरी बदला नए इंसान का जब दौर-ए-ख़ुद-ना-आगही बदला रुमूज़-ए-बे-ख़ुदी बदले तक़ाज़ा-ए-ख़ुदी बदला बदलते जा रहे हैं हम भी दुनिया को बदलने में नहीं बदली अभी दुनिया तो दुनिया को अभी बदला नई मंज़िल के मीर-ए-कारवाँ भी और होते हैं पुराने ख़िज़्र-ए-रह बदले वो तर्ज़-ए-रहबरी बदला कभी सोचा भी है ऐ नज़्म-ए-कोहना के ख़ुदा-वंदो तुम्हारा हश्र क्या होगा जो ये आलम कभी बदला उधर पिछले से अहल-ए-माल-ओ-ज़र पर रात भारी है इधर बेदारी-ए-जम्हूर का अंदाज़ भी बदला ज़हे सोज़-ए-ग़म-ए-आदम ख़ुशा साज़-ए-दिल-ए-आदम इसी इक शम्अ' की लौ ने जहान-ए-तीरगी बदला नए मंसूर हैं सदियों पुराने शेख़-ओ-क़ाज़ी हैं न फ़तवे कुफ़्र के बदले न उज़्र-ए-दार ही बदला बताए तो बताए उस को तेरी शोख़ी-ए-पिन्हाँ तिरी चश्म-ए-तवज्जोह है कि तर्ज़-ए-बे-रुख़ी बदला ब-फ़ैज़-ए-आदम-ए-ख़ाकी ज़मीं सोना उगलती है उसी ज़र्रे ने दौर-ए-मेहर-ओ-माह-ओ-मुशतरी बदला सितारे जागते हैं रात लट छटकाए सोती है दबे पाँव किसी ने आ के ख़्वाब-ए-ज़िंदगी बदला 'फ़िराक़' हम-नवा-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब' अब नए नग़्मे वो बज़्म-ए-ज़िंदगी बदली वो रंग-ए-शाइ'री बदला
dete-hain-jaam-e-shahaadat-mujhe-maaluum-na-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
देते हैं जाम-ए-शहादत मुझे मा'लूम न था है ये आईन-ए-मोहब्बत मुझे मा'लूम न था मतलब-ए-चश्म-ए-मुरव्वत मुझे मा'लूम न था तुझ को मुझ से थी शिकायत मुझे मा'लूम न था चश्म-ए-ख़ामोश की बाबत मुझे मा'लूम न था ये भी है हर्फ़-ओ-हिकायत मुझे मा'लूम न था इश्क़ बस में है मशिय्यत के अक़ीदा था मिरा उस के बस में है मशिय्यत मुझे मा'लूम न था हफ़्त-ख़्वाँ जिस ने किए तय सर-ए-राह-ए-तस्लीम टूट जाती है वो हिम्मत मुझे मा'लूम न था आज हर क़तरा-ए-मय बन गया इक चिंगारी थी ये साक़ी की शरारत मुझे मा'लूम न था निगह-ए-मस्त ने तलवार उठा ली सर-ए-बज़्म यूँ बदल जाती है निय्यत मुझे मा'लूम न था ग़म-ए-हस्ती से जो बेज़ार रहा मैं इक उम्र तुझ से भी थी उसे निस्बत मुझे मा'लूम न था इश्क़ भी अहल-ए-तरीक़त में है ऐसा था ख़याल इश्क़ है पीर-ए-तरीक़त मुझे मा'लूम न था पूछ मत शरह-करम-हा-ए-अज़ीज़ाँ हमदम उन में इतनी थी शराफ़त मुझे मा'लूम न था जब से देखा है तुझे मुझ से है मेरी अन-बन हुस्न का रंग-ए-सियासत मुझे मा'लूम न था शक्ल इंसान की हो चाल भी इंसान की हो यूँ भी आती है क़यामत मुझे मा'लूम न था सर-ए-मामूरा-ए-आलम ये दिल-ए-ख़ाना-ख़राब मिट गया तेरी बदौलत मुझे मा'लूम न था पर्दा-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा में भी रहा हूँ करता तुझ से मैं अपनी ही ग़ीबत मुझे मा'लूम न था नक़्द-ए-जाँ क्या है ज़माने में मोहब्बत हमदम नहीं मिलती किसी क़ीमत मुझे मा'लूम न था हो गया आज रफ़ीक़ों से गले मिल के जुदा अपना ख़ुद इश्क़-ए-सदाक़त मुझे मा'लूम न था दर्द दिल क्या है खुला आज तिरे लड़ने पर तुझ से इतनी थी मोहब्बत मुझे मा'लूम न था दम निकल जाए मगर दिल न लगाए कोई इश्क़ की ये थी वसिय्यत मुझे मा'लूम न था हुस्न वालों को बहुत सहल समझ रक्खा था तुझ पे आएगी तबीअत मुझे मा'लूम न था कितनी ख़ल्लाक़ है ये नीस्ती-ए-इश्क़ 'फ़िराक़' उस से हस्ती है इबारत मुझे मा'लूम न था
gam-tiraa-jalva-gah-e-kaun-o-makaan-hai-ki-jo-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
ग़म तिरा जल्वा-गह-ए-कौन-ओ-मकाँ है कि जो था या'नी इंसान वही शो'ला-ब-जाँ है कि जो था फिर वही रंग-ए-तकल्लुम निगह-ए-नाज़ में है वही अंदाज़ वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था कब है इंकार तिरे लुत्फ़-ओ-करम से लेकिन तू वही दुश्मन-ए-दिल दुश्मन-ए-जाँ है कि जो था इश्क़ अफ़्सुर्दा नहीं आज भी अफ़्सुर्दा बहुत वही कम कम असर-ए-सोज़-ए-निहाँ है कि जो था क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन आज वो रब्त का एहसास कहाँ है कि जो था नज़र आ जाते हैं तुम को तो बहुत नाज़ुक बाल दिल मिरा क्या वही ऐ शीशा-गिराँ है कि जो था जान दे बैठे थे इक बार हवस वाले भी फिर वही मरहला-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है कि जो था हुस्न को खींच तो लेता है अभी तक लेकिन वो असर जज़्ब-ए-मोहब्बत में कहाँ है कि जो था आज भी सैद-गह-ए-इश्क़ में हुसन-ए-सफ़्फ़ाक लिए अबरू की लचकती सी कमाँ है कि जो था फिर तिरी चश्म-ए-सुख़न-संज ने छेड़ी कोई बात वही जादू है वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था फिर सर-ए-मय-कद-ए-इश्क़ है इक बारिश-ए-नूर छलके जामों से चराग़ाँ का समाँ है कि जो था फिर वही ख़ैर-निगाही है तिरे जल्वों से वही आलम तिरा ऐ बर्क़-ए-दमाँ है कि जो था आज भी आग दबी है दिल-ए-इंसाँ में 'फ़िराक़' आज भी सीनों से उठता वो धुआँ है कि जो था
apne-gam-kaa-mujhe-kahaan-gam-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है ऐ कि तेरी ख़ुशी मुक़द्दम है आग में जो पड़ा वो आग हुआ हुस्न-ए-सोज़-ए-निहाँ मुजस्सम है उस के शैतान को कहाँ तौफ़ीक़ इश्क़ करना गुनाह-ए-आदम है दिल के धड़कों में ज़ोर-ए-ज़र्ब-ए-कलीम किस क़दर इस हबाब में दम है है वही इश्क़ ज़िंदा-ओ-जावेद जिसे आब-ए-हयात भी सम है इस में ठहराव या सुकून कहाँ ज़िंदगी इंक़लाब-ए-पैहम है इक तड़प मौज-ए-तह-नशीं की तरह ज़िंदगी की बिना-ए-मोहकम है रहती दुनिया में इश्क़ की दुनिया नए उन्वान से मुनज़्ज़म है उठने वाली है बज़्म माज़ी की रौशनी कम है ज़िंदगी कम है ये भी नज़्म-ए-हयात है कोई ज़िंदगी ज़िंदगी का मातम है इक मुअ'म्मा है ज़िंदगी ऐ दोस्त ये भी तेरी अदा-ए-मुबहम है ऐ मोहब्बत तू इक अज़ाब सही ज़िंदगी बे तिरे जहन्नम है इक तलातुम सा रंग-ओ-निकहत का पैकर-ए-नाज़ में दमा-दम है फिरने को है रसीली नीम-निगाह आहू-ए-नाज़ माइल-ए-राम है रूप के जोत ज़ेर-ए-पैराहन गुल्सिताँ पर रिदा-ए-शबनम है मेरे सीने से लग के सो जाओ पलकें भारी हैं रात भी कम है आह ये मेहरबानियाँ तेरी शादमानी की आँख पुर-नम है नर्म ओ दोशीज़ा किस क़द्र है निगाह हर नज़र दास्तान-ए-मरयम है मेहर-ओ-मह शोला-हा-ए-साज़-ए-जमाल जिस की झंकार इतनी मद्धम है जैसे उछले जुनूँ की पहली शाम इस अदा से वो ज़ुल्फ़ बरहम है यूँ भी दिल में नहीं वो पहली उमंग और तेरी निगाह भी कम है और क्यूँ छेड़ती है गर्दिश-ए-चर्ख़ वो नज़र फिर गई ये क्या कम है रू-कश-ए-सद-हरीम-ए-दिल है फ़ज़ा वो जहाँ हैं अजीब आलम है दिए जाती है लौ सदा-ए-'फ़िराक़' हाँ वही सोज़-ओ-साज़ कम कम है
vo-chup-chaap-aansuu-bahaane-kii-raaten-firaq-gorakhpuri-ghazals
वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें वो इक शख़्स के याद आने की रातें शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें जवानी की दोशीज़गी का तबस्सुम गुल-ए-ज़ार के वो खिलाने की रातें फुवारें सी नग़्मों की पड़ती हों जैसे कुछ उस लब के सुनने-सुनाने की रातें मुझे याद है तेरी हर सुब्ह-ए-रुख़्सत मुझे याद हैं तेरे आने की रातें पुर-असरार सी मेरी अर्ज़-ए-तमन्ना वो कुछ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने की रातें सर-ए-शाम से रतजगा के वो सामाँ वो पिछले पहर नींद आने की रातें सर-ए-शाम से ता-सहर क़ुर्ब-ए-जानाँ न जाने वो थीं किस ज़माने की रातें सर-ए-मय-कदा तिश्नगी की वो क़स्में वो साक़ी से बातें बनाने की रातें हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें 'फ़िराक़' अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें
samajhtaa-huun-ki-tuu-mujh-se-judaa-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है शब-ए-फ़ुर्क़त मुझे क्या हो गया है तिरा ग़म क्या है बस ये जानता हूँ कि मेरी ज़िंदगी मुझ से ख़फ़ा है कभी ख़ुश कर गई मुझ को तिरी याद कभी आँखों में आँसू आ गया है हिजाबों को समझ बैठा मैं जल्वा निगाहों को बड़ा धोका हुआ है बहुत दूर अब है दिल से याद तेरी मोहब्बत का ज़माना आ रहा है न जी ख़ुश कर सका तेरा करम भी मोहब्बत को बड़ा धोका रहा है कभी तड़पा गया है दिल तिरा ग़म कभी दिल को सहारा दे गया है शिकायत तेरी दिल से करते करते अचानक प्यार तुझ पर आ गया है जिसे चौंका के तू ने फेर ली आँख वो तेरा दर्द अब तक जागता है जहाँ है मौजज़न रंगीनी-ए-हुस्न वहीं दिल का कँवल लहरा रहा है गुलाबी होती जाती हैं फ़ज़ाएँ कोई इस रंग से शरमा रहा है मोहब्बत तुझ से थी क़ब्ल-अज़-मोहब्बत कुछ ऐसा याद मुझ को आ रहा है जुदा आग़ाज़ से अंजाम से दूर मोहब्बत इक मुसलसल माजरा है ख़ुदा-हाफ़िज़ मगर अब ज़िंदगी में फ़क़त अपना सहारा रह गया है मोहब्बत में 'फ़िराक़' इतना न ग़म कर ज़माने में यही होता रहा है
diidaar-men-ik-tarfa-diidaar-nazar-aayaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
दीदार में इक तुर्फ़ा दीदार नज़र आया हर बार छुपा कोई हर बार नज़र आया छालों को बयाबाँ भी गुलज़ार नज़र आया जब छेड़ पर आमादा हर ख़ार नज़र आया सुब्ह-ए-शब-ए-हिज्राँ की वो चाक-गरेबानी इक आलम-ए-नैरंगी हर तार नज़र आया हो सब्र कि बेताबी उम्मीद कि मायूसी नैरंग-ए-मोहब्बत भी बे-कार नज़र आया जब चश्म-ए-सियह तेरी थी छाई हुई दिल पर इस मुल्क का हर ख़ित्ता तातार नज़र आया तू ने भी तो देखी थी वो जाती हुई दुनिया क्या आख़री लम्हों में बीमार नज़र आया ग़श खा के गिरे मूसा अल्लाह-री मायूसी हल्का सा वो पर्दा भी दीवार नज़र आया ज़र्रा हो कि क़तरा हो ख़ुम-ख़ाना-ए-हस्ती में मख़मूर नज़र आया सरशार नज़र आया क्या कुछ न हुआ ग़म से क्या कुछ न किया ग़म ने और यूँ तो हुआ जो कुछ बे-कार नज़र आया ऐ इश्क़ क़सम तुझ को मा'मूरा-ए-आलम की कोई ग़म-ए-फ़ुर्क़त में ग़म-ख़्वार नज़र आया शब कट गई फ़ुर्क़त की देखा न 'फ़िराक़' आख़िर तूल-ए-ग़म-ए-हिज्राँ भी बे-कार नज़र आया
jahaan-e-guncha-e-dil-kaa-faqat-chataknaa-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
जहान‌‌‌‌-ए-गुंचा-ए-दिल का फ़क़त चटकना था उसी की बू-ए-परेशाँ वजूद-ए-दुनिया था ये कह के कल कोई बे-इख़्तियार रोता था वो इक निगाह सही क्यूँ किसी को देखा था तनाबें कूचा-ए-क़ातिल की खिंचती जाती थीं शहीद-ए-तेग़-ए-अदा में भी ज़ोर कितना था बस इक झलक नज़र आई उड़े कलीम के होश बस इक निगाह हुई ख़ाक तूर-ए-सीना था हर इक के हाथ फ़क़त ग़फ़लतें थीं होश-नुमा कि अपने आप से बेगाना-वार जीना था यही हुआ कि फ़रेब-ए-उमीद-ओ-यास मिटे वो पा गए तिरे हाथों हमें जो पाना था चमन में ग़ुंचा-ए-गुल खिलखिला के मुरझाए यही वो थे जिन्हें हँस हँस के जान देना था निगाह-ए-मेहर में जिस की हैं सद पयाम-ए-फ़ना उसी का आलम-ए-ईजाद-ओ-नाज़ बेजा था जहाँ तू जल्वा-नुमा था लरज़ती थी दुनिया तिरे जमाल से कैसा जलाल पैदा था हयात-ओ-मर्ग के कुछ राज़ खुल गए होंगे फ़साना-ए-शब-ए-ग़म वर्ना दोस्तो क्या था शब-ए-अदम का फ़साना गुदाज़ शम-ए-हयात सिवाए कैफ़-ए-फ़ना मेरा माजरा क्या था कुछ ऐसी बात न थी तेरा दूर हो जाना ये और बात कि रह रह के दर्द उठता था न पूछ सूद-ओ-ज़ियाँ कारोबार-ए-उल्फ़त के वगर्ना यूँ तो न पाना था कुछ न खोता था लगावटें वो तिरे हुस्न-ए-बे-नियाज़ की आह मैं तेरी बज़्म से जब ना-उमीद उट्ठा था तुझे हम ऐ दिल-ए-दर्द-आश्ना कहाँ ढूँडें हम अपने होश में कब थे कोई जब उट्ठा था अदम का राज़ सदा-ए-शिकस्त साज़-ए-हयात हिजाब-ए-ज़ीस्त भी कितना लतीफ़ पर्दा था ये इज़तिराब-ओ-सुकूँ भी थी इक फ़रेब-ए-हयात कि अपने हाल से बेगाना-वार जीना था कहाँ पे चूक हुई तेरे बे-क़रारों से ज़माना दूसरी करवट बदलने वाला था ये कोई याद है ये भी है कोई मह्विय्यत तिरे ख़याल में तुझ को भी भूल जाना था कहाँ की चोट उभर आई हुस्न-ए-ताबाँ में दम-ए-नज़ारा वो रुख़ दर्द सा चमकता था न पूछ रम्ज़-ओ-किनायात चश्म-ए-साक़ी के बस एक हश्र-ए-ख़मोश अंजुमन में बरपा था चमन चमन थी गुल-ए-दाग़-ए-इश्क़ से हस्ती उसी की निकहत-ए-बर्बाद का ज़माना था वो था मिरा दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता जिस के मिटने से बहार-ए-बाग़-ए-जिनाँ थी वजूद-ए-दुनिया था क़सम है बादा-कशो चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी की बताओ हाथ से क्या जाम-ए-मय सँभलता था विसाल उस से मैं चाहूँ कहाँ ये दिल मेरा ये रो रहा हूँ कि क्यूँ उस को मैं ने देखा था उमीद यास बनी यास फिर उमीद बनी उस इक नज़र में फ़रेब-ए-निगाह कितना था ये सोज़-ओ-साज़-ए-निहाँ था वो सोज़-ओ-साज़-ए-अयाँ विसाल-ओ-हिज्र में बस फ़र्क़ था तो इतना था शिकस्त-ए-साज़-ए-चमन थी बहार-ए-लाला-ओ-गुल ख़िज़ाँ मचलती थी ग़ुंचा जहाँ चटकता था हर एक साँस है तज्दीद-ए-याद-ए-अय्यामी गुज़र गया वो ज़माना जिसे गुज़रना था न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था किसी के सब्र ने बे-सब्र दिया सब को 'फ़िराक़' नज़्अ' में करवट कोई बदलता था
daur-e-aagaaz-e-jafaa-dil-kaa-sahaaraa-niklaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
दौर-ए-आग़ाज़-ए-जफ़ा दिल का सहारा निकला हौसला कुछ न हमारा न तुम्हारा निकला तेरा नाम आते ही सकते का था आलम मुझ पर जाने किस तरह ये मज़कूर दोबारा निकला होश जाता है जिगर जाता है दल जाता है पर्दे ही पर्दे में क्या तेरा इशारा निकला है तिरे कश्फ़-ओ-करामात की दुनिया क़ाइल तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला कितने सफ़्फ़ाक सर-ए-क़त्ल-गह-ए-आलम थे लाखों में बस वही अल्लाह का प्यारा निकला इबरत-अंगेज़ है क्या उस की जवाँ-मर्गी भी हाए वो दिल जो हमारा न तुम्हारा निकला इश्क़ की लौ से फ़रिश्तों के भी पर जलते हैं रश्क-ए-ख़ुर्शीद-ए-क़यामत ये शरारा निकला सर-ब-सर बे-सर-ओ-सामाँ जिसे समझे थे वो दिल रश्क-ए-जम्शेद-ओ-कै-ओ-ख़ुसरो-ओ-दारा निकला रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली शम्अ' बे-नूर हुई सुब्ह का तारा निकला उँगलियाँ उट्ठीं 'फ़िराक़'-ए-वतन-आवारा पर आज जिस सम्त से वो दर्द का मारा निकला
ab-daur-e-aasmaan-hai-na-daur-e-hayaat-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है ऐ दर्द-ए-हिज्र तू ही बता कितनी रात है हर काएनात से ये अलग काएनात है हैरत-सरा-ए-इश्क़ में दिन है न रात है जीना जो आ गया तो अजल भी हयात है और यूँ तो उम्र-ए-ख़िज़्र भी क्या बे-सबात है क्यूँ इंतिहा-ए-होश को कहते हैं बे-ख़ुदी ख़ुर्शीद ही की आख़िरी मंज़िल तो रात है हस्ती को जिस ने ज़लज़ला-सामाँ बना दिया वो दिल क़रार पाए मुक़द्दर की बात है ये मुशगाफ़ियाँ हैं गिराँ तब-ए-इश्क़ पर किस को दिमाग़-ए-काविश-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात है तोड़ा है ला-मकाँ की हदों को भी इश्क़ ने ज़िंदान-ए-अक़्ल तेरी तो क्या काएनात है गर्दूं शरार-ए-बर्क़-ए-दिल-ए-बे-क़रार देख जिन से ये तेरी तारों भरी रात रात है गुम हो के हर जगह हैं ज़-ख़ुद रफ़्तगान-ए-इश्क़ उन की भी अहल-ए-कश्फ़-ओ-करामात ज़ात है हस्ती ब-जुज़ फ़ना-ए-मुसलसल के कुछ नहीं फिर किस लिए ये फ़िक्र-ए-क़रार-ओ-सबात है उस जान-ए-दोस्ती का ख़ुलूस-ए-निहाँ न पूछ जिस का सितम भी ग़ैरत-ए-सद-इल्तिफ़ात है यूँ तो हज़ार दर्द से रोते हैं बद-नसीब तुम दिल दुखाओ वक़्त-ए-मुसीबत तो बात है उनवान ग़फ़लतों के हैं क़ुर्बत हो या विसाल बस फ़ुर्सत-ए-हयात 'फ़िराक़' एक रात है
kamii-na-kii-tire-vahshii-ne-khaak-udaane-men-firaq-gorakhpuri-ghazals
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में 'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में जुनूँ से भूल हुई दिल पे चोट खाने में 'फ़िराक़' देर अभी थी बहार आने में वो कोई रंग है जो उड़ न जाए ऐ गुल-ए-तर वो कोई बू है जो रुस्वा न हो ज़माने में वो आस्तीं है कोई जो लहू न दे निकले वो कोई हसन है झिझके जो रंग लाने में ये गुल खिले हैं कि चोटें जिगर की उभरी हैं निहाँ बहार थी बुलबुल तिरे तराने में बयान-ए-शम्अ है हासिल यही है जलने का फ़ना की कैफ़ियतें देख झिलमिलाने में कसी की हालत-ए-दिल सुन के उठ गईं आँखें कि जान पड़ गई हसरत भरे फ़साने में उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम जो दास्ताँ थी निहाँ तेरे आँख उठाने में ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में हमीं हैं गुल हमीं बुलबुल हमीं हवा-ए-चमन 'फ़िराक़' ख़्वाब ये देखा है क़ैद-ख़ाने में
raat-bhii-niind-bhii-kahaanii-bhii-firaq-gorakhpuri-ghazals
रात भी नींद भी कहानी भी हाए क्या चीज़ है जवानी भी एक पैग़ाम-ए-ज़िंदगानी भी आशिक़ी मर्ग-ए-ना-गहानी भी इस अदा का तिरी जवाब नहीं मेहरबानी भी सरगिरानी भी दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में कुछ बलाएँ थीं आसमानी भी मंसब-ए-दिल ख़ुशी लुटाना है ग़म-ए-पिन्हाँ की पासबानी भी दिल को शो'लों से करती है सैराब ज़िंदगी आग भी है पानी भी शाद-कामों को ये नहीं तौफ़ीक़ दिल-ए-ग़म-गीं की शादमानी भी लाख हुस्न-ए-यक़ीं से बढ़ कर है उन निगाहों की बद-गुमानी भी तंगना-ए-दिल-ए-मलूल में है बहर-ए-हस्ती की बे-करानी भी इश्क़-ए-नाकाम की है परछाईं शादमानी भी कामरानी भी देख दिल के निगार-ख़ाने में ज़ख़्म-ए-पिन्हाँ की है निशानी भी ख़ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती कुछ सुनूँ मैं तिरी ज़बानी भी आए तारीख़-ए-इश्क़ में सौ बार मौत के दौर-ए-दरमियानी भी अपनी मासूमियत के पर्दे में हो गई वो नज़र सियानी भी दिन को सूरज-मुखी है वो नौ-गुल रात को है वो रात-रानी भी दिल-ए-बद-नाम तेरे बारे में लोग कहते हैं इक कहानी भी वज़्अ' करते कोई नई दुनिया कि ये दुनिया हुई पुरानी भी दिल को आदाब-ए-बंदगी भी न आए कर गए लोग हुक्मरानी भी जौर-ए-कम-कम का शुक्रिया बस है आप की इतनी मेहरबानी भी दिल में इक हूक भी उठी ऐ दोस्त याद आई तिरी जवानी भी सर से पा तक सुपुर्दगी की अदा एक अंदाज़-ए-तुर्कमानी भी पास रहना किसी का रात की रात मेहमानी भी मेज़बानी भी हो न अक्स-ए-जबीन-ए-नाज़ कि है दिल में इक नूर-ए-कहकशानी भी ज़िंदगी ऐन दीद-ए-यार 'फ़िराक़' ज़िंदगी हिज्र की कहानी भी
shaam-e-gam-kuchh-us-nigaah-e-naaz-kii-baaten-karo-firaq-gorakhpuri-ghazals
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो बे-ख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो ये सुकूत-ए-नाज़ ये दिल की रगों का टूटना ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म सुब्ह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो हर रग-ए-दिल वज्द में आती रहे दुखती रहे यूँही उस के जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो जौ अदम की जान है जो है पयाम-ए-ज़िंदगी उस सुकूत-ए-राज़ उस आवाज़ की बातें करो इश्क़ रुस्वा हो चला बे-कैफ़ सा बेज़ार सा आज उस की नर्गिस-ए-ग़म्माज़ की बातें करो नाम भी लेना है जिस का इक जहान-ए-रंग-ओ-बू दोस्तो उस नौ-बहार-ए-नाज़ की बातें करो किस लिए उज़्र-ए-तग़ाफुल किस लिए इल्ज़ाम-ए-इश्क़ आज चर्ख़-ए-तफ़रक़ा-पर्वाज़ की बातें करो कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो जो हयात-ए-जाविदाँ है जो है मर्ग-ए-ना-गहाँ आज कुछ उस नाज़ उस अंदाज़ की बातें करो इश्क़-ए-बे-परवा भी अब कुछ ना-शकेबा हो चला शोख़ी-ए-हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ की बातें करो जिस की फ़ुर्क़त ने पलट दी इश्क़ की काया 'फ़िराक़' आज उस ईसा-नफ़स दम-साज़ की बातें करो
jaur-o-be-mehrii-e-igmaaz-pe-kyaa-rotaa-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है मेहरबाँ भी कोई हो जाएगा जल्दी क्या है खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है दिल का इक काम जो होता नहीं इक मुद्दत से तुम ज़रा हाथ लगा दो तो हुआ रक्खा है निगह-ए-शोख़ में और दिल में हैं चोटें क्या क्या आज तक हम न समझ पाए कि झगड़ा क्या है इश्क़ से तौबा भी है हुस्न से शिकवे भी हज़ार कहिए तो हज़रत-ए-दिल आप का मंशा क्या है ज़ीनत-ए-दोश तिरा नामा-ए-आमाल न हो तेरी दस्तार से वाइ'ज़ ये लटकता क्या है हाँ अभी वक़्त का आईना दिखाए क्या क्या देखते जाओ ज़माना अभी देखा क्या है न यगाने हैं न बेगाने तिरी महफ़िल में न कोई ग़ैर यहाँ है न कोई अपना है निगह-ए-मस्त को जुम्बिश न हुइ गो सर-ए-बज़्म कुछ तो इस जाम-ए-लबा-लब से अभी छलका है रात-दिन फिरती है पलकों के जो साए साए दिल मिरा उस निगह-ए-नाज़ का दीवाना है हम जुदाई से भी कुछ काम तो ले ही लेंगे बे-नियाज़ाना तअ'ल्लुक़ ही छुटा अच्छा है उन से बढ़-चढ़ के तो ऐ दोस्त हैं यादें इन की नाज़-ओ-अंदाज़-ओ-अदा में तिरी रक्खा क्या है ऐसी बातों से बदलती है कहीं फ़ितरत-ए-हुस्न जान भी दे दे अगर कोई तो क्या होता है तिरी आँखों को भी इंकार तिरी ज़ुल्फ़ को भी किस ने ये इश्क़ को दीवाना बना रक्खा है दिल तिरा जान तिरी आह तिरी अश्क तिरे जो है ऐ दोस्त वो तेरा है हमारा क्या है दर-ए-दौलत पे दुआएँ सी सुनी हैं मैं ने देखिए आज फ़क़ीरों का किधर फेरा है तुझ को हो जाएँगे शैतान के दर्शन वाइ'ज़ डाल कर मुँह को गरेबाँ में कभी देखा है हम कहे देते हैं चालों में न आओ उन की सर्वत-ओ-जाह के इश्वों से बचो धोका है यही गर आँख में रह जाए तो है चिंगारी क़तरा-ए-अश्क जो बह जाए तो इक दरिया है ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ के सिवा नर्गिस-ए-जादू के सिवा दिल को कुछ और बलाओं ने भी आ घेरा है लब-ए-एजाज़ की सौगंद ये झंकार थी क्या तेरी ख़ामोशी के मानिंद अभी कुछ टूटा है दार पर गाह नज़र गाह सू-ए-शहर-ए-निगार कुछ सुनें हम भी तो ऐ इश्क़ इरादा क्या है आ कि ग़ुर्बत-कदा-ए-दहर में जी बहलाएँ ऐ दिल उस जल्वा-गह-ए-नाज़ में क्या रक्खा है ज़ख़्म ही ज़ख़्म हूँ मैं सुब्ह की मानिंद 'फ़िराक़' रात भर हिज्र की लज़्ज़त से मज़ा लूटा है
bastiyaan-dhuundh-rahii-hain-unhen-viiraanon-men-firaq-gorakhpuri-ghazals
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में निगह-ए-नाज़ न दीवानों न फ़र्ज़ानों में जानकार एक वही है मगर अन-जानों में बज़्म-ए-मय बे-ख़ुद-ओ-बे-ताब न क्यूँ हो साक़ी मौज-ए-बादा है कि दर्द उठता है पैमानों में मैं तो मैं चौंक उठी है ये फ़ज़ा-ए-ख़ामोश ये सदा कब की सुनी आती है फिर कानों में सैर कर उजड़े दिलों की जो तबीअ'त है उदास जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं वीरानों में वुसअ'तें भी हैं निहाँ तंगी-ए-दिल में ग़ाफ़िल जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं मैदानों में जान ईमान-ए-जुनूँ सिलसिला जुम्बान-ए-जुनूँ कुछ कशिश-हा-ए-निहाँ जज़्ब हैं वीरानों में ख़ंदा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल तीरगी-ए-शाम-ए-अबद दोनों आलम हैं छलकते हुए पैमानों में देख जब आलम-ए-हू को तो नया आलम है बस्तियाँ भी नज़र आने लगीं वीरानों में जिस जगह बैठ गए आग लगा कर उट्ठे गर्मियाँ हैं कुछ अभी सोख़्ता-सामानों में वहशतें भी नज़र आती हैं सर-ए-पर्दा-ए-नाज़ दामनों में है ये आलम न गरेबानों में एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में जौहर-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल में है इक अंदाज़-ए-जुनूँ कुछ बयाबाँ नज़र आए हैं गरेबानों में अब वो रंग-ए-चमन-ओ-ख़ंदा-ए-गुल भी न रहे अब वो आसार-ए-जुनूँ भी नहीं दीवानों में अब वो साक़ी की भी आँखें न रहीं रिंदों में अब वो साग़र भी छलकते नहीं मय-ख़ानों में अब वो इक सोज़-ए-निहानी भी दिलों में न रहा अब वो जल्वे भी नहीं इश्क़ के काशानों में अब न वो रात जब उम्मीदें भी कुछ थीं तुझ से अब न वो बात ग़म-ए-हिज्र के अफ़्सानों में अब तिरा काम है बस अहल-ए-वफ़ा का पाना अब तिरा नाम है बस इश्क़ के ग़म-ख़ानों में ता-ब-कै वादा-ए-मौहूम की तफ़्सील 'फ़िराक़' शब-ए-फ़ुर्क़त कहीं कटती है इन अफ़्सानों में
sar-men-saudaa-bhii-nahiin-dil-men-tamannaa-bhii-nahiin-firaq-gorakhpuri-ghazals
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़ मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़' है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
firaaq-ik-naii-suurat-nikal-to-saktii-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals
'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है ब-क़ौल उस आँख के दुनिया बदल तो सकती है तिरे ख़याल को कुछ चुप सी लग गई वर्ना कहानियों से शब-ए-ग़म बहल तो सकती है उरूस-ए-दहर चले खा के ठोकरें लेकिन क़दम क़दम पे जवानी उबल तो सकती है पलट पड़े न कहीं उस निगाह का जादू कि डूब कर ये छुरी कुछ उछल तो सकती है बुझे हुए नहीं इतने बुझे हुए दिल भी फ़सुर्दगी में तबीअ'त मचल तो सकती है अगर तू चाहे तो ग़म वाले शादमाँ हो जाएँ निगाह-ए-यार ये हसरत निकल तो सकती है अब इतनी बंद नहीं ग़म-कदों की भी राहें हवा-ए-कूच-ए-महबूब चल तो सकती है कड़े हैं कोस बहुत मंज़िल-ए-मोहब्बत के मिले न छाँव मगर धूप ढल तो सकती है हयात लौ तह-ए-दामान-ए-मर्ग दे उट्ठी हवा की राह में ये शम्अ जल तो सकती है कुछ और मस्लहत-ए-जज़्ब-ए-इश्क़ है वर्ना किसी से छुट के तबीअ'त सँभल तो सकती है अज़ल से सोई है तक़दीर-ए-इश्क़ मौत की नींद अगर जगाइए करवट बदल तो सकती है ग़म-ए-ज़माना-ओ-सोज़-ए-निहाँ की आँच तो दे अगर न टूटे ये ज़ंजीर गल तो सकती है शरीक-ए-शर्म-ओ-हया कुछ है बद-गुमानी-ए-हुस्न नज़र उठा ये झिजक सी निकल तो सकती है कभी वो मिल न सकेगी मैं ये नहीं कहता वो आँख आँख में पड़ कर बदल तो सकती है बदलता जाए ग़म-ए-रोज़गार का मरकज़ ये चाल गर्दिश-ए-अय्याम चल तो सकती है वो बे-नियाज़ सही दिल मता-ए-हेच सही मगर किसी की जवानी मचल तो सकती है तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और कि गिरते गिरते भी दुनिया सँभल तो सकती है ये ज़ोर-ओ-शोर सलामत तिरी जवानी भी ब-क़ौल इश्क़ के साँचे में ढल तो सकती है सुना है बर्फ़ के टुकड़े हैं दिल हसीनों के कुछ आँच पा के ये चाँदी पिघल तो सकती है हँसी हँसी में लहू थूकते हैं दिल वाले ये सर-ज़मीन मगर ला'ल उगल तो सकती है जो तू ने तर्क-ए-मोहब्बत को अहल-ए-दिल से कहा हज़ार नर्म हो ये बात खल तो सकती है अरे वो मौत हो या ज़िंदगी मोहब्बत पर न कुछ सही कफ़-ए-अफ़सोस मल तो सकती है हैं जिस के बल पे खड़े सरकशों को वो धरती अगर कुचल नहीं सकती निगल तो सकती है हुई है गर्म लहु पी के इश्क़ की तलवार यूँ ही जिलाए जा ये शाख़ फल तो सकती है गुज़र रही है दबे पाँव इश्क़ की देवी सुबुक-रवी से जहाँ को मसल तो सकती है हयात से निगह-ए-वापसीं है कुछ मानूस मिरे ख़याल से आँखों में पल तो सकती है न भूलना ये है ताख़ीर हुस्न की ताख़ीर 'फ़िराक़' आई हुई मौत टल तो सकती है
koii-paigaam-e-mohabbat-lab-e-ejaaz-to-de-firaq-gorakhpuri-ghazals
कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे मौत की आँख भी खुल जाएगी आवाज़ तो दे मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे चश्म-ए-मख़मूर के उनवान-ए-नज़र कुछ तो खुलें दिल-ए-रंजूर धड़कने का कुछ अंदाज़ तो दे इक ज़रा हो नशा-ए-हुस्न में अंदाज़-ए-ख़ुमार इक झलक इश्क़ के अंजाम की आग़ाज़ तो दे जो छुपाए न छुपे और बताए न बने दिल-ए-आशिक़ को इन आँखों से कोई राज़ तो दे मुंतज़िर इतनी कभी थी न फ़ज़ा-ए-आफ़ाक़ छेड़ने ही को हूँ पुर-दर्द ग़ज़ल साज़ तो दे हम असीरान-ए-क़फ़स आग लगा सकते हैं फ़ुर्सत-ए-नग़्मा कभी हसरत-ए-परवाज़ तो दे इश्क़ इक बार मशिय्यत को बदल सकता है इंदिया अपना मगर कुछ निगह-ए-नाज़ तो दे क़ुर्ब ओ दीदार तो मालूम किसी का फिर भी कुछ पता सा फ़लक-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो दे मंज़िलें गर्द की मानिंद उड़ी जाती हैं अबलक़-ए-दहर कुछ अंदाज़-ए-तग-ओ-ताज़ तो दे कान से हम तो 'फ़िराक़' आँख का लेते हैं काम आज छुप कर कोई आवाज़ पर आवाज़ तो दे
hijr-o-visaal-e-yaar-kaa-parda-uthaa-diyaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया ख़ुद बढ़ के इश्क़ ने मुझे मेरा पता दिया गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-हस्ती-ए-फ़ानी उड़ा दिया ऐ कीमिया-ए-इश्क़ मुझे क्या बना दिया वो सामने है और नज़र से छुपा दिया ऐ इश्क़-ए-बे-हिजाब मुझे क्या दिखा दिया वो शान-ए-ख़ामुशी कि बहारें हैं मुंतज़िर वो रंग-ए-गुफ़्तुगू कि गुलिस्ताँ बना दिया दम ले रही थीं हुस्न की जब सेहर-कारियाँ इन वक़्फा-हा-ए-कुफ्र को ईमाँ बना दिया मालूम कुछ मुझी को हैं उन की रवानियाँ जिन क़तरा-हा-ए-अश्क को दरिया बना दया इक बर्क़-ए-बे-क़रार थी तम्कीन-ए-हुस्न भी जिस वक़्त इश्क़ को ग़म-ए-सब्र-आज़मा दिया साक़ी मुझे भी याद हैं वो तिश्ना-कामियाँ जिन को हरीफ़-ए-साग़र-ओ-मीना बना दिया मालूम है हक़ीक़त-ए-ग़म-हा-ए-रोज़गार दुनिया को तेरे दर्द ने दुनिया बना दिया ऐ शोख़ी-ए-निगाह-ए-करम मुद्दतों के बा'द ख़्वाब-ए-गिरान-ए-ग़म से मुझे क्यूँ जगा दिया कुछ शोरिशें तग़ाफ़ुल-ए-पिन्हाँ में थीं जिन्हें हंगामा-ज़ार-ए-हश्र-ए-तमन्ना बना दिया बढ़ता ही जा रहा है जमाल-ए-नज़र-फ़रेब हुस्न-ए-नज़र को हुस्न-ए-ख़ुद-आरा बना दिया फिर देखना निगाह लड़ी किस से इश्क़ की गर हुस्न ने हिजाब-ए-तग़ाफुल उठा दिया जब ख़ून हो चुका दिल-ए-हस्ती-ए-एतिबार कुछ दर्द बच रहे जिन्हें इंसाँ बना दिया गुम-कर्दा-ए-वफ़ूर-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार हूँ तू क्या छुपा कि मुझ को मुझी से छुपा दिया रात अब हरीफ़-ए-सुब्हह-ए-क़यामत ही क्यूँ न हो जो कुछ भी हो उस आँख को अब तो जगा दिया अब मैं हूँ और लुत्फ़-ओ-करम के तकल्लुफ़ात ये क्यूँ हिजाब-ए-रंजिश-ए-बे-जा बना दिया थी यूँ तो शाम-ए-हिज्र मगर पिछली रात को वो दर्द उठा 'फ़िराक़' कि मैं मुस्कुरा दिया
kuchh-ishaare-the-jinhen-duniyaa-samajh-baithe-the-ham-firaq-gorakhpuri-ghazals
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए वाह-री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम पर्दा-ए-आज़ुर्दगी में थी वो जान-ए-इल्तिफ़ात जिस अदा को रंजिश-ए-बेजा समझ बैठे थे हम क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम बे-नियाज़ी को तिरी पाया सरासर सोज़ ओ दर्द तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश ओ हर दौर में इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती उस को भी अपनी तबीअ'त का समझ बैठे थे हम साफ़ अलग हम को जुनून-ए-आशिक़ी ने कर दिया ख़ुद को तेरे दर्द का पर्दा समझ बैठे थे हम कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम बातों बातों में पयाम-ए-मर्ग भी आ ही गया उन निगाहों को हयात-अफ़्ज़ा समझ बैठे थे हम अब नहीं ताब-ए-सिपास-ए-हुस्न इस दिल को जिसे बे-क़रार-ए-शिकव-ए-बेजा समझ बैठे थे हम एक दुनिया दर्द की तस्वीर निकली इश्क़ को कोह-कन और क़ैस का क़िस्सा समझ बैठे थे हम रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होता चला ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम हुस्न को इक हुस्न ही समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़' मेहरबाँ ना-मेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
zer-o-bam-se-saaz-e-khilqat-ke-jahaan-bantaa-gayaa-firaq-gorakhpuri-ghazals
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया दास्तान-ए-जौर-ए-बेहद ख़ून से लिखता रहा क़तरा क़तरा अश्क-ए-ग़म का बे-कराँ बनता गया इश्क़-ए-तन्हा से हुईं आबाद कितनी मंज़िलें इक मुसाफ़िर कारवाँ-दर-कारवाँ बनता गया मैं तिरे जिस ग़म को अपना जानता था वो भी तो ज़ेब-ए-उनवान-ए-हदीस-ए-दीगराँ बनता गया बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया हम को है मालूम सब रूदाद-ए-इल्म-ओ-फ़ल्सफ़ा हाँ हर ईमान-ओ-यक़ीं वहम-ओ-गुमाँ बनता गया मैं किताब-ए-दिल में अपना हाल-ए-ग़म लिखता रहा हर वरक़ इक बाब-ए-तारीख़-ए-जहाँ बनता गया बस उसी की तर्जुमानी है मिरे अशआ'र में जो सुकूत-ए-राज़ रंगीं दास्ताँ बनता गया मैं ने सौंपा था तुझे इक काम सारी उम्र में वो बिगड़ता ही गया ऐ दिल कहाँ बनता गया वारदात-ए-दिल को दिल ही में जगह देते रहे हर हिसाब-ए-ग़म हिसाब-ए-दोस्ताँ बनता गया मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया वक़्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए एक तेरा ग़म कि गंज-ए-शाईगाँ बनता गया सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़' क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
jaagne-vaalo-taa-ba-sahar-khaamosh-raho-habib-jalib-ghazals
जागने वालो ता-ब-सहर ख़ामोश रहो कल क्या होगा किस को ख़बर ख़ामोश रहो किस ने सहर के पाँव में ज़ंजीरें डालीं हो जाएगी रात बसर ख़ामोश रहो शायद चुप रहने में इज़्ज़त रह जाए चुप ही भली ऐ अहल-ए-नज़र ख़ामोश रहो क़दम क़दम पर पहरे हैं इन राहों में दार-ओ-रसन का है ये नगर ख़ामोश रहो यूँ भी कहाँ बे-ताबी-ए-दिल कम होती है यूँ भी कहाँ आराम मगर ख़ामोश रहो शेर की बातें ख़त्म हुईं इस आलम में कैसा 'जोश' और किस का 'जिगर' ख़ामोश रहो
ham-ne-dil-se-tujhe-sadaa-maanaa-habib-jalib-ghazals
हम ने दिल से तुझे सदा माना तू बड़ा था तुझे बड़ा माना 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' के बा'द 'अनीस' के बा'द तुझ को माना बड़ा बजा माना तू कि दीवाना-ए-सदाक़त था तू ने बंदे को कब ख़ुदा माना तुझ को पर्वा न थी ज़माने की तू ने दिल ही का हर कहा माना तुझ को ख़ुद पे था ए'तिमाद इतना ख़ुद ही को तो न रहनुमा माना की न शब की कभी पज़ीराई सुब्ह को लाएक़-ए-सना माना हँस दिया सत्ह-ए-ज़ेहन-ए-आलम पर जब किसी बात का बुरा माना यूँ तो शाइ'र थे और भी ऐ 'जोश' हम ने तुझ सा न दूसरा माना
tum-se-pahle-vo-jo-ik-shakhs-yahaan-takht-nashiin-thaa-habib-jalib-ghazals
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था आज सोए हैं तह-ए-ख़ाक न जाने यहाँ कितने कोई शोला कोई शबनम कोई महताब-जबीं था अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को इक ज़माने में मिज़ाज उन का सर-ए-अर्श-ए-बरीं था छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था
afsos-tumhen-car-ke-shiishe-kaa-huaa-hai-habib-jalib-ghazals
अफ़्सोस तुम्हें कार के शीशे का हुआ है पर्वा नहीं इक माँ का जो दिल टूट गया है होता है असर तुम पे कहाँ नाला-ए-ग़म का बरहम जो हुई बज़्म-ए-तरब इस का गिला है फ़िरऔन भी नमरूद भी गुज़रे हैं जहाँ में रहता है यहाँ कौन यहाँ कौन रहा है तुम ज़ुल्म कहाँ तक तह-ए-अफ़्लाक करोगे ये बात न भूलो कि हमारा भी ख़ुदा है आज़ादी-ए-इंसान के वहीं फूल खिलेंगे जिस जा पे ज़हीर आज तिरा ख़ून गिरा है ता-चंद रहेगी ये शब-ए-ग़म की सियाही रस्ता कोई सूरज का कहीं रोक सका है तू आज का शाइ'र है तो कर मेरी तरह बात जैसे मिरे होंटों पे मिरे दिल की सदा है
dushmanon-ne-jo-dushmanii-kii-hai-habib-jalib-ghazals
दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है दोस्तों ने भी क्या कमी की है ख़ामुशी पर हैं लोग ज़ेर-ए-इताब और हम ने तो बात भी की है मुतमइन है ज़मीर तो अपना बात सारी ज़मीर ही की है अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी ग़म उठाए हैं शाएरी की है अब नज़र में नहीं है एक ही फूल फ़िक्र हम को कली कली की है पा सकेंगे न उम्र भर जिस को जुस्तुजू आज भी उसी की है जब मह-ओ-महर बुझ गए 'जालिब' हम ने अश्कों से रौशनी की है
sher-hotaa-hai-ab-mahiinon-men-habib-jalib-ghazals
शे'र होता है अब महीनों में ज़िंदगी ढल गई मशीनों में प्यार की रौशनी नहीं मिलती उन मकानों में उन मकीनों में देख कर दोस्ती का हाथ बढ़ाओ साँप होते हैं आस्तीनों में क़हर की आँख से न देख इन को दिल धड़कते हैं आबगीनों में आसमानों की ख़ैर हो यारब इक नया अज़्म है ज़मीनों में वो मोहब्बत नहीं रही 'जालिब' हम-सफ़ीरों में हम-नशीनों में
aur-sab-bhuul-gae-harf-e-sadaaqat-likhnaa-habib-jalib-ghazals-1
और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना हम ने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना न सिले की न सताइश की तमन्ना हम को हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना हम ने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा शायद आया इसी ख़ूबी की बदौलत लिखना इस से बढ़ कर मिरी तहसीन भला क्या होगी पढ़ के ना-ख़ुश हैं मिरा साहब-ए-सरवत लिखना दहर के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए सर्व क़ामत को जवानी को क़यामत लिखना कुछ भी कहते हैं कहीं शह के मुसाहिब 'जालिब' रंग रखना यही अपना इसी सूरत लिखना
dil-vaalo-kyuun-dil-sii-daulat-yuun-be-kaar-lutaate-ho-habib-jalib-ghazals
दिल वालो क्यूँ दिल सी दौलत यूँ बे-कार लुटाते हो क्यूँ इस अँधियारी बस्ती में प्यार की जोत जगाते हो तुम ऐसा नादान जहाँ में कोई नहीं है कोई नहीं फिर इन गलियों में जाते हो पग पग ठोकर खाते हो सुंदर कलियो कोमल फूलो ये तो बताओ ये तो कहो आख़िर तुम में क्या जादू है क्यूँ मन में बस जाते हो ये मौसम रिम-झिम का मौसम ये बरखा ये मस्त फ़ज़ा ऐसे में आओ तो जानें ऐसे में कब आते हो हम से रूठ के जाने वालो इतना भेद बता जाओ क्यूँ नित रातो को सपनों में आते हो मन जाते हो चाँद-सितारों के झुरमुट में फूलों की मुस्काहट में तुम छुप-छुप कर हँसते हो तुम रूप का मान बढ़ाते हो चलते फिरते रौशन रस्ते तारीकी में डूब गए सो जाओ अब 'जालिब' तुम भी क्यूँ आँखें सुलगाते हो
ab-terii-zaruurat-bhii-bahut-kam-hai-mirii-jaan-habib-jalib-ghazals
अब तेरी ज़रूरत भी बहुत कम है मिरी जाँ अब शौक़ का कुछ और ही आलम है मिरी जाँ अब तज़्किरा-ए-ख़ंदा-ए-गुल बार है जी पर जाँ वक़्फ़-ए-ग़म-ए-गिर्या-ए-शबनम है मिरी जाँ रुख़ पर तिरे बिखरी हुई ये ज़ुल्फ़-ए-सियह-ताब तस्वीर-ए-परेशानी-ए-आलम है मिरी जाँ ये क्या कि तुझे भी है ज़माने से शिकायत ये क्या कि तिरी आँख भी पुर-नम है मिरी जाँ हम सादा-दिलों पर ये शब-ए-ग़म का तसल्लुत मायूस न हो और कोई दम है मिरी जाँ ये तेरी तवज्जोह का है एजाज़ कि मुझ से हर शख़्स तिरे शहर का बरहम है मिरी जाँ ऐ नुज़हत-ए-महताब तिरा ग़म है मिरी ज़ीस्त ऐ नाज़िश-ए-ख़ुर्शीद तिरा ग़म है मिरी जाँ
chuur-thaa-zakhmon-se-dil-zakhmii-jigar-bhii-ho-gayaa-habib-jalib-ghazals
चूर था ज़ख़्मों से दिल ज़ख़्मी जिगर भी हो गया उस को रोते थे कि सूना ये नगर भी हो गया लोग उसी सूरत परेशाँ हैं जिधर भी देखिए और वो कहते हैं कोह-ए-ग़म तो सर भी हो गया बाम-ओ-दर पर है मुसल्लत आज भी शाम-ए-अलम यूँ तो इन गलियों से ख़ुर्शीद-ए-सहर भी हो गया उस सितमगर की हक़ीक़त हम पे ज़ाहिर हो गई ख़त्म ख़ुश-फ़हमी की मंज़िल का सफ़र भी हो गया
bate-rahoge-to-apnaa-yuunhii-bahegaa-lahuu-habib-jalib-ghazals
बटे रहोगे तो अपना यूँही बहेगा लहू हुए न एक तो मंज़िल न बन सकेगा लहू हो किस घमंड में ऐ लख़्त लख़्त दीदा-वरो तुम्हें भी क़ातिल-ए-मेहनत-कशाँ कहेगा लहू इसी तरह से अगर तुम अना-परस्त रहे ख़ुद अपना राह-नुमा आप ही बनेगा लहू सुनो तुम्हारे गरेबान भी नहीं महफ़ूज़ डरो तुम्हारा भी इक दिन हिसाब लेगा लहू अगर न अहद किया हम ने एक होने का ग़नीम सब का यूँही बेचता रहेगा लहू कभी कभी मिरे बच्चे भी मुझ से पूछते हैं कहाँ तक और तू ख़ुश्क अपना ही करेगा लहू सदा कहा यही मैं ने क़रीब-तर है वो दूर कि जिस में कोई हमारा न पी सकेगा लहू
vahii-haalaat-hain-faqiiron-ke-habib-jalib-ghazals
वही हालात हैं फ़क़ीरों के दिन फिरे हैं फ़क़त वज़ीरों के अपना हल्क़ा है हल्क़ा-ए-ज़ंजीर और हल्क़े हैं सब अमीरों के हर बिलावल है देस का मक़रूज़ पाँव नंगे हैं बेनज़ीरों के वही अहल-ए-वफ़ा की सूरत-ए-हाल वारे न्यारे हैं बे-ज़मीरों के साज़िशें हैं वही ख़िलाफ़-ए-अवाम मशवरे हैं वही मुशीरों के बेड़ियाँ सामराज की हैं वही वही दिन-रात हैं असीरों के
us-rauunat-se-vo-jiite-hain-ki-marnaa-hii-nahiin-habib-jalib-ghazals
उस रऊनत से वो जीते हैं कि मरना ही नहीं तख़्त पर बैठे हैं यूँ जैसे उतरना ही नहीं यूँ मह-ओ-अंजुम की वादी में उड़े फिरते हैं वो ख़ाक के ज़र्रों पे जैसे पाँव धरना ही नहीं उन का दा'वा है कि सूरज भी उन्ही का है ग़ुलाम शब जो हम पर आई है उस को गुज़रना ही नहीं क्या इलाज उस का अगर हो मुद्दआ' उन का यही एहतिमाम रंग-ओ-बू गुलशन में करना ही नहीं ज़ुल्म से हैं बरसर-ए-पैकार आज़ादी-पसंद उन पहाड़ों में जहाँ पर कोई झरना ही नहीं दिल भी उन के हैं सियह ख़ूराक-ए-ज़िंदाँ की तरह उन से अपना ग़म बयाँ अब हम को करना ही नहीं इंतिहा कर लें सितम की लोग अभी हैं ख़्वाब में जाग उट्ठे जब लोग तो उन को ठहरना ही नहीं
khuub-aazaadii-e-sahaafat-hai-habib-jalib-ghazals
ख़ूब आज़ादी-ए-सहाफ़त है नज़्म लिखने पे भी क़यामत है दा'वा जम्हूरियत का है हर-आन ये हुकूमत भी क्या हुकूमत है धाँदली धोंस की है पैदावार सब को मा'लूम ये हक़ीक़त है ख़ौफ़ के ज़ेहन-ओ-दिल पे साए हैं किस की इज़्ज़त यहाँ सलामत है कभी जम्हूरियत यहाँ आए यही 'जालिब' हमारी हसरत है
tire-maathe-pe-jab-tak-bal-rahaa-hai-habib-jalib-ghazals
तिरे माथे पे जब तक बल रहा है उजाला आँख से ओझल रहा है समाते क्या नज़र में चाँद तारे तसव्वुर में तिरा आँचल रहा है तिरी शान-ए-तग़ाफ़ुल को ख़बर क्या कोई तेरे लिए बे-कल रहा है शिकायत है ग़म-ए-दौराँ को मुझ से कि दिल में क्यूँ तिरा ग़म पल रहा है तअज्जुब है सितम की आँधियों में चराग़-ए-दिल अभी तक जल रहा है लहू रोएँगी मग़रिब की फ़ज़ाएँ बड़ी तेज़ी से सूरज ढल रहा है ज़माना थक गया 'जालिब' ही तन्हा वफ़ा के रास्ते पर चल रहा है
zarre-hii-sahii-koh-se-takraa-to-gae-ham-habib-jalib-ghazals
ज़र्रे ही सही कोह से टकरा तो गए हम दिल ले के सर-ए-अर्सा-ए-ग़म आ तो गए हम अब नाम रहे या न रहे इश्क़ में अपना रूदाद-ए-वफ़ा दार पे दोहरा तो गए हम कहते थे जो अब कोई नहीं जाँ से गुज़रता लो जाँ से गुज़र कर उन्हें झुटला तो गए हम जाँ अपनी गँवा कर कभी घर अपना जला कर दिल उन का हर इक तौर से बहला तो गए हम कुछ और ही आलम था पस-ए-चेहरा-ए-याराँ रहता जो यूँही राज़ उसे पा तो गए हम अब सोच रहे हैं कि ये मुमकिन ही नहीं है फिर उन से न मिलने की क़सम खा तो गए हम उट्ठें कि न उट्ठें ये रज़ा उन की है 'जालिब' लोगों को सर-ए-दार नज़र आ तो गए हम
kaun-bataae-kaun-sujhaae-kaun-se-des-sidhaar-gae-habib-jalib-ghazals
कौन बताए कौन सुझाए कौन से देस सिधार गए उन का रस्ता तकते तकते नैन हमारे हार गए काँटों के दुख सहने में तस्कीन भी थी आराम भी था हँसने वाले भोले-भाले फूल चमन के मार गए एक लगन की बात है जीवन एक लगन ही जीवन है पूछ न क्या खोया क्या पाया क्या जीते क्या हार गए आने वाली बरखा देखें क्या दिखलाए आँखों को ये बरखा बरसाते दिन तो बिन प्रीतम बे-कार गए जब भी लौटे प्यार से लौटे फूल न पा कर गुलशन में भँवरे अमृत रस की धुन में पल पल सौ सौ बार गए हम से पूछो साहिल वालो क्या बीती दुखियारों पर खेवन-हारे बीच भँवर में छोड़ के जब उस पार गए
hujuum-dekh-ke-rasta-nahiin-badalte-ham-habib-jalib-ghazals
हुजूम देख के रस्ता नहीं बदलते हम किसी के डर से तक़ाज़ा नहीं बदलते हम हज़ार ज़ेर-ए-क़दम रास्ता हो ख़ारों का जो चल पड़ें तो इरादा नहीं बदलते हम इसी लिए तो नहीं मो'तबर ज़माने में कि रंग-ए-सूरत-ए-दुनिया नहीं बदलते हम हवा को देख के 'जालिब' मिसाल-ए-हम-अस्राँ बजा ये ज़ोम हमारा नहीं बदलते हम
dil-par-jo-zakhm-hain-vo-dikhaaen-kisii-ko-kyaa-habib-jalib-ghazals
दिल पर जो ज़ख़्म हैं वो दिखाएँ किसी को क्या अपना शरीक-ए-दर्द बनाएँ किसी को क्या हर शख़्स अपने अपने ग़मों में है मुब्तला ज़िंदाँ में अपने साथ रुलाएँ किसी को क्या बिछड़े हुए वो यार वो छोड़े हुए दयार रह रह के हम को याद जो आएँ किसी को क्या रोने को अपने हाल पे तन्हाई है बहुत उस अंजुमन में ख़ुद पे हँसाएं किसी को क्या वो बात छेड़ जिस में झलकता हो सब का ग़म यादें किसी की तुझ को सताएं किसी को क्या सोए हुए हैं लोग तो होंगे सुकून से हम जागने का रोग लगाएँ किसी को क्या 'जालिब' न आएगा कोई अहवाल पूछने दें शहर-ए-बे-हिसाँ में सदाएँ किसी को क्या
apnon-ne-vo-ranj-diye-hain-begaane-yaad-aate-hain-habib-jalib-ghazals
अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं देख के उस बस्ती की हालत वीराने याद आते हैं उस नगरी में क़दम क़दम पे सर को झुकाना पड़ता है उस नगरी में क़दम क़दम पर बुत-ख़ाने याद आते हैं आँखें पुर-नम हो जाती हैं ग़ुर्बत के सहराओं में जब उस रिम-झिम की वादी के अफ़्साने याद आते हैं ऐसे ऐसे दर्द मिले हैं नए दयारों में हम को बिछड़े हुए कुछ लोग पुराने याराने याद आते हैं जिन के कारन आज हमारे हाल पे दुनिया हस्ती है कितने ज़ालिम चेहरे जाने पहचाने याद आते हैं यूँ न लुटी थी गलियों दौलत अपने अश्कों की रोते हैं तो हम को अपने ग़म-ख़ाने याद आते हैं कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबाँ का 'जालिब' चारों जानिब सन्नाटा है दीवाने याद आते हैं
faiz-aur-faiz-kaa-gam-bhuulne-vaalaa-hai-kahiin-habib-jalib-ghazals
'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं मौत ये तेरा सितम भूलने वाला है कहीं हम से जिस वक़्त ने वो शाह-ए-सुख़न छीन लिया हम को वो वक़्त-ए-अलम भूलने वाला है कहीं तिरे अश्क और भी चमकाएँगी यादें उस की हम को वो दीदा-ए-नम भूलने वाला है कहीं कभी ज़िंदाँ में कभी दूर वतन से ऐ दोस्त जो किया उस ने रक़म भूलने वाला है कहीं आख़िरी बार उसे देख न पाए 'जालिब' ये मुक़द्दर का सितम भूलने वाला है कहीं
jiivan-mujh-se-main-jiivan-se-sharmaataa-huun-habib-jalib-ghazals
जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूँ मुझ से आगे जाने वालो में आता हूँ जिन की यादों से रौशन हैं मेरी आँखें दिल कहता है उन को भी मैं याद आता हूँ सुर से साँसों का नाता है तोड़ूँ कैसे तुम जलते हो क्यूँ जीता हूँ क्यूँ गाता हूँ तुम अपने दामन में सितारे बैठ कर टाँको और मैं नए बरन लफ़्ज़ों को पहनाता हूँ जिन ख़्वाबों को देख के मैं ने जीना सीखा उन के आगे हर दौलत को ठुकराता हूँ ज़हर उगलते हैं जब मिल कर दुनिया वाले मीठे बोलों की वादी में खो जाता हूँ 'जालिब' मेरे शेर समझ में आ जाते हैं इसी लिए कम-रुत्बा शाएर कहलाता हूँ
aag-hai-phailii-huii-kaalii-ghataaon-kii-jagah-habib-jalib-ghazals
आग है फैली हुई काली घटाओं की जगह बद-दुआएँ हैं लबों पर अब दुआओं की जगह इंतिख़ाब-ए-अहल-ए-गुलशन पर बहुत रोता है दिल देख कर ज़ाग़-ओ-ज़ग़्न को ख़ुश-नवाओं की जगह कुछ भी होता पर न होते पारा-पारा जिस्म-ओ-जाँ राहज़न होते अगर उन रहनुमाओं की जगह लुट गई इस दौर में अहल-ए-क़लम की आबरू बिक रहे हैं अब सहाफ़ी बेसवाओं की जगह कुछ तो आता हम को भी जाँ से गुज़रने का मज़ा ग़ैर होते काश 'जालिब' आश्नाओं की जगह
kabhii-to-mehrbaan-ho-kar-bulaa-len-habib-jalib-ghazals
कभी तो मेहरबाँ हो कर बुला लें ये महवश हम फ़क़ीरों की दुआ लें न जाने फिर ये रुत आए न आए जवाँ फूलों की कुछ ख़ुश्बू चुरा लें बहुत रोए ज़माने के लिए हम ज़रा अपने लिए आँसू बहा लें हम उन को भूलने वाले नहीं हैं समझते हैं ग़म-ए-दौराँ की चालें हमारी भी सँभल जाएगी हालत वो पहले अपनी ज़ुल्फ़ें तो सँभालें निकलने को है वो महताब घर से सितारों से कहो नज़रें झुका लें हम अपने रास्ते पर चल रहे हैं जनाब-ए-शैख़ अपना रास्ता लें ज़माना तो यूँही रूठा रहेगा चलो 'जालिब' उन्हें चल कर मना लें
is-shahr-e-kharaabii-men-gam-e-ishq-ke-maare-habib-jalib-ghazals
इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे ये हँसता हुआ चाँद ये पुर-नूर सितारे ताबिंदा ओ पाइंदा हैं ज़र्रों के सहारे हसरत है कोई ग़ुंचा हमें प्यार से देखे अरमाँ है कोई फूल हमें दिल से पुकारे हर सुब्ह मिरी सुब्ह पे रोती रही शबनम हर रात मिरी रात पे हँसते रहे तारे कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे
na-dagmagaae-kabhii-ham-vafaa-ke-raste-men-habib-jalib-ghazals
न डगमगाए कभी हम वफ़ा के रस्ते में चराग़ हम ने जलाए हवा के रस्ते में किसे लगाए गले और कहाँ कहाँ ठहरे हज़ार ग़ुंचा-ओ-गुल हैं सबा के रस्ते में ख़ुदा का नाम कोई ले तो चौंक उठते हैं मिले हैं हम को वो रहबर ख़ुदा के रस्ते में कहीं सलासिल-ए-तस्बीह और कहीं ज़ुन्नार बिछे हैं दाम बहुत मुद्दआ के रस्ते में अभी वो मंज़िल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र नहीं आई है आदमी अभी जुर्म ओ सज़ा के रस्ते में हैं आज भी वही दार-ओ-रसन वही ज़िंदाँ हर इक निगाह-ए-रुमूज़-आश्ना के रस्ते में ये नफ़रतों की फ़सीलें जहालतों के हिसार न रह सकेंगे हमारी सदा के रस्ते में मिटा सके न कोई सैल-ए-इंक़लाब जिन्हें वो नक़्श छोड़े हैं हम ने वफ़ा के रस्ते में ज़माना एक सा 'जालिब' सदा नहीं रहता चलेंगे हम भी कभी सर उठा के रस्ते में
vo-dekhne-mujhe-aanaa-to-chaahtaa-hogaa-habib-jalib-ghazals
वो देखने मुझे आना तो चाहता होगा मगर ज़माने की बातों से डर गया होगा उसे था शौक़ बहुत मुझ को अच्छा रखने का ये शौक़ औरों को शायद बुरा लगा होगा कभी न हद्द-ए-अदब से बढ़े थे दीदा ओ दिल वो मुझ से किस लिए किसी बात पर ख़फ़ा होगा मुझे गुमान है ये भी यक़ीन की हद तक किसी से भी न वो मेरी तरह मिला होगा कभी कभी तो सितारों की छाँव में वो भी मिरे ख़याल में कुछ देर जागता होगा वो उस का सादा ओ मासूम वालेहाना-पन किसी भी जुग में कोई देवता भी क्या होगा नहीं वो आया तो 'जालिब' गिला न कर उस का न-जाने क्या उसे दरपेश मसअला होगा
ye-soch-kar-na-maail-e-fariyaad-ham-hue-habib-jalib-ghazals
ये सोच कर न माइल-ए-फ़रियाद हम हुए आबाद कब हुए थे कि बर्बाद हम हुए होता है शाद-काम यहाँ कौन बा-ज़मीर नाशाद हम हुए तो बहुत शाद हम हुए परवेज़ के जलाल से टकराए हम भी हैं ये और बात है कि न फ़रहाद हम हुए कुछ ऐसे भा गए हमें दुनिया के दर्द-ओ-ग़म कू-ए-बुताँ में भूली हुई याद हम हुए 'जालिब' तमाम उम्र हमें ये गुमाँ रहा उस ज़ुल्फ़ के ख़याल से आज़ाद हम हुए
ye-jo-shab-ke-aivaanon-men-ik-halchal-ik-hashr-bapaa-hai-habib-jalib-ghazals
ये जो शब के ऐवानों में इक हलचल इक हश्र बपा है ये जो अंधेरा सिमट रहा है ये जो उजाला फैल रहा है ये जो हर दुख सहने वाला दुख का मुदावा जान गया है मज़लूमों मजबूरों का ग़म ये जो मिरे शे'रों में ढला है ये जो महक गुलशन गुलशन है ये जो चमक आलम आलम है मार्कसिज़्म है मार्कसिज़्म है मार्कसिज़्म है मार्कसिज़्म है
us-ne-jab-hans-ke-namaskaar-kiyaa-habib-jalib-ghazals
उस ने जब हँस के नमस्कार किया मुझ को इंसान से अवतार किया दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-वीराँ ने याद जमुना को कई बार किया प्यार की बात न पूछो यारो हम ने किस किस से नहीं प्यार किया कितनी ख़्वाबीदा तमन्नाओं को उस की आवाज़ ने बेदार किया हम पुजारी हैं बुतों के 'जालिब' हम ने का'बे में भी इक़रार किया
ik-shakhs-baa-zamiir-miraa-yaar-mushafii-habib-jalib-ghazals
इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी' मेरी तरह वफ़ा का परस्तार 'मुसहफ़ी' रहता था कज-कुलाह अमीरों के दरमियाँ यकसर लिए हुए मिरा किरदार 'मुसहफ़ी' देते हैं दाद ग़ैर को कब अहल-ए-लखनऊ कब दाद का था उन से तलबगार 'मुसहफ़ी' ना-क़द्री-ए-जहाँ से कई बार आ के तंग इक उम्र शे'र से रहा बेज़ार 'मुसहफ़ी' दरबार में था बार कहाँ उस ग़रीब को बरसों मिसाल-ए-'मीर' फिरा ख़्वार 'मुसहफ़ी' मैं ने भी उस गली में गुज़ारी है रो के उम्र मिलता है उस गली में किसे प्यार 'मुसहफ़ी'
log-giiton-kaa-nagar-yaad-aayaa-habib-jalib-ghazals
लोग गीतों का नगर याद आया आज परदेस में घर याद आया जब चले आए चमन-ज़ार से हम इल्तिफ़ात-ए-गुल-ए-तर याद आया तेरी बेगाना-निगाही सर-ए-शाम ये सितम ता-ब-सहर याद आया हम ज़माने का सितम भूल गए जब तिरा लुत्फ़-ए-नज़र याद आया तो भी मसरूर था इस शब सर-ए-बज़्म अपने शे'रों का असर याद आया फिर हुआ दर्द-ए-तमन्ना बेदार फिर दिल-ए-ख़ाक-बसर याद आया हम जिसे भूल चुके थे 'जालिब' फिर वही राहगुज़र याद आया
baaten-to-kuchh-aisii-hain-ki-khud-se-bhii-na-kii-jaaen-habib-jalib-ghazals
बातें तो कुछ ऐसी हैं कि ख़ुद से भी न की जाएँ सोचा है ख़मोशी से हर इक ज़हर को पी जाएँ अपना तो नहीं कोई वहाँ पूछने वाला उस बज़्म में जाना है जिन्हें अब तो वही जाएँ अब तुझ से हमें कोई तअल्लुक़ नहीं रखना अच्छा हो कि दिल से तिरी यादें भी चली जाएँ इक उम्र उठाए हैं सितम ग़ैर के हम ने अपनों की तो इक पल भी जफ़ाएँ न सही जाएँ 'जालिब' ग़म-ए-दौराँ हो कि याद-ए-रुख़-ए-जानाँ तन्हा मुझे रहने दें मिरे दिल से सभी जाएँ
dil-e-pur-shauq-ko-pahluu-men-dabaae-rakkhaa-habib-jalib-ghazals
दिल-ए-पुर-शौक़ को पहलू में दबाए रक्खा तुझ से भी हम ने तिरा प्यार छुपाए रक्खा छोड़ इस बात को ऐ दोस्त कि तुझ से पहले हम ने किस किस को ख़यालों में बसाए रक्खा ग़ैर मुमकिन थी ज़माने के ग़मों से फ़ुर्सत फिर भी हम ने तिरा ग़म दिल में बसाए रक्खा फूल को फूल न कहते सो उसे क्या कहते क्या हुआ ग़ैर ने कॉलर पे सजाए रक्खा जाने किस हाल में हैं कौन से शहरों में हैं वो ज़िंदगी अपनी जिन्हें हम ने बनाए रक्खा हाए क्या लोग थे वो लोग परी-चेहरा लोग हम ने जिन के लिए दुनिया को भुलाए रक्खा अब मिलें भी तो न पहचान सकें हम उन को जिन को इक उम्र ख़यालों में बसाए रक्खा
kuchh-log-khayaalon-se-chale-jaaen-to-soen-habib-jalib-ghazals
कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ बीते हुए दिन रात न याद आएँ तो सोएँ चेहरे जो कभी हम को दिखाई नहीं देंगे आ आ के तसव्वुर में न तड़पाएँ तो सोएँ बरसात की रुत के वो तरब-रेज़ मनाज़िर सीने में न इक आग सी भड़काएँ तो सोएँ सुब्हों के मुक़द्दर को जगाते हुए मुखड़े आँचल जो निगाहों में न लहराएँ तो सोएँ महसूस ये होता है अभी जाग रहे हैं लाहौर के सब यार भी सो जाएँ तो सोएँ
kam-puraanaa-bahut-nayaa-thaa-firaaq-habib-jalib-ghazals
कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़ इक अजब रम्ज़-आशना था फ़िराक़ दूर वो कब हुआ निगाहों से धड़कनों में बसा हुआ है फ़िराक़ शाम-ए-ग़म के सुलगते सहरा में इक उमंडती हुई घटा था फ़िराक़ अम्न था प्यार था मोहब्बत था रंग था नूर था नवा था फ़िराक़ फ़ासले नफ़रतों के मिट जाएँ प्यार ही प्यार सोचता था फ़िराक़ हम से रंज-ओ-अलम के मारों को किस मोहब्बत से देखता था फ़िराक़ इश्क़ इंसानियत से था उस को हर तअ'स्सुब से मावरा था फ़िराक़
darakht-suukh-gae-ruk-gae-nadii-naale-habib-jalib-ghazals
दरख़्त सूख गए रुक गए नदी नाले ये किस नगर को रवाना हुए हैं घर वाले कहानियाँ जो सुनाते थे अहद-ए-रफ़्ता की निशाँ वो गर्दिश-ए-अय्याम ने मिटा डाले मैं शहर शहर फिरा हूँ इसी तमन्ना में किसी को अपना कहूँ कोई मुझ को अपना ले सदा न दे किसी महताब को अंधेरों में लगा न दे ये ज़माना ज़बान पर ताले कोई किरन है यहाँ तो कोई किरन है वहाँ दिल ओ निगाह ने किस दर्जा रोग हैं पाले हमीं पे उन की नज़र है हमीं पे उन का करम ये और बात यहाँ और भी हैं दिल वाले कुछ और तुझ पे खुलेंगी हक़ीक़तें 'जालिब' जो हो सके तो किसी का फ़रेब भी खा ले
bahut-raushan-hai-shaam-e-gam-hamaarii-habib-jalib-ghazals
बहुत रौशन है शाम-ए-ग़म हमारी किसी की याद है हमदम हमारी ग़लत है ला-तअल्लुक़ हैं चमन से तुम्हारे फूल और शबनम हमारी ये पलकों पर नए आँसू नहीं हैं अज़ल से आँख है पुर-नम हमारी हर इक लब पर तबस्सुम देखने की तमन्ना कब हुई है कम हमारी कही है हम ने ख़ुद से भी बहुत कम न पूछो दास्तान-ए-ग़म हमारी
bhulaa-bhii-de-use-jo-baat-ho-gaii-pyaare-habib-jalib-ghazals
भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे नए चराग़ जला रात हो गई प्यारे तिरी निगाह-ए-पशेमाँ को कैसे देखूँगा कभी जो तुझ से मुलाक़ात हो गई प्यारे न तेरी याद न दुनिया का ग़म न अपना ख़याल अजीब सूरत-ए-हालात हो गई प्यारे उदास उदास हैं शमएँ बुझे बुझे साग़र ये कैसी शाम-ए-ख़राबात हो गई प्यारे वफ़ा का नाम न लेगा कोई ज़माने में हम अहल-ए-दिल को अगर मात हो गई प्यारे तुम्हें तो नाज़ बहुत दोस्तों पे था 'जालिब' अलग-थलग से हो क्या बात हो गई प्यारे

Hindi Transliteration of Urdu Poetry Dataset

Welcome to the Hindi Transliteration of Urdu Poetry Dataset! This dataset features Hindi transliterations of traditional Urdu poetry. Each entry in the dataset includes two columns:

  • Title: The transliterated title of the poem in Hindi.
  • Poem: The transliterated text of the Urdu poem rendered in Hindi script.

This dataset is perfect for researchers and developers working on cross-script language processing, transliteration models, and comparative literary studies.


Dataset Overview

This dataset offers a rich collection of Urdu poetry, transliterated into Hindi. By providing both the title and the complete poem in Hindi script, it aims to bridge the gap between Urdu literature and Hindi readers. The dataset is structured in a tabular format, making it easy to work with using popular data processing tools.

Each record contains:

  • Poem Title: The title of the poem, transliterated into Hindi.
  • Poem Text: The full poem text, transliterated into Hindi.

Data Format

The dataset is available in standard tabular formats such as CSV or JSON. Each entry includes the following columns:

  • title (string): The transliterated title of the poem.
  • poem (string): The transliterated full text of the poem.

Example (CSV format):

title,poem
"दिल की किताब","यह इश्क़ नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिये..."
"फूलों का सिलसिला","खुशबुओं की महफ़िल में, एक फूल कहानी कहता है..."
How to Load the Dataset
You can easily load the dataset using the Hugging Face Datasets library. Below is an example in Python:

python
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from datasets import load_dataset

# Replace 'your-username/hindi-transliteration-urdu-poetry' with the actual repository name on Hugging Face Hub
dataset = load_dataset("your-username/hindi-transliteration-urdu-poetry")

# Accessing the train split (if applicable, otherwise adjust accordingly)
print(dataset['train'][0])
Note: Ensure that you have the datasets library installed:

bash
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Edit
pip install datasets
Intended Use Cases
Transliteration Research: Develop and evaluate models for transliterating text between scripts.
Cross-Lingual Studies: Analyze similarities and differences in poetic expression across languages.
Text Generation: Train language models for generating poetry in Hindi using transliterated content.
Cultural and Literary Studies: Explore themes, styles, and cultural narratives in Urdu poetry made accessible to Hindi readers.
License
This dataset is distributed under the MIT License. See the LICENSE file for more details.

Contributing
Contributions to the dataset are welcome! If you have improvements, additional data, or suggestions, please open an issue or submit a pull request on the GitHub repository.

Citation
If you find this dataset useful in your work, please consider citing it. For example:

bibtex
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@dataset{yourusername2025hinditranslit,
  author       = {Your Name},
  title        = {Hindi Transliteration of Urdu Poetry Dataset},
  year         = {2025},
  publisher    = {Hugging Face},
  url          = {https://huggingface.co/datasets/your-username/hindi-transliteration-urdu-poetry},
}
Contact
For any questions, suggestions, or issues, please contact your.email@example.com
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